रविवार, 29 मई 2011

क्यों नहीं अपनी हस्ती......... संध्या शर्मा


उसकी इजाज़त के बगैर जब पत्ता भी नहीं हिलता है,
वह ख़ामोशी से दुनिया का तमाशा क्यों देखता है ..
क्या सब कुछ उसकी मर्जी से ही होता है...?
क्यों नहीं अपनी हस्ती आप ही मिटा देता है ...?
ना होते गिरिजाघर, गुरूद्वारे,
ना मस्जिद, ना मंदिर होता.
ना कोई हिन्दू, मुस्लिम,
ना सिक्ख, ईसाई होता.
 ना कोई दुश्मन होता,
ना कोई किसी से नफरत करता.
दिल बनाकर उसमे झूठ और फरेब ना देता,
तो आपस में एक प्यार का रिश्ता ही होता..
हर रूप में इंसान यहाँ इंसान ही होता....

"ज़िन्दगी मर रही है,
मौत यहाँ जिन्दा है....
अपने बनाये जहाँ पर,
तू अब भी नहीं शर्मिंदा है....?"     

शुक्रवार, 20 मई 2011

प्रलय.......... संध्या शर्मा

 
सुना है प्रलय आएगा,
तो क्या....?
कोई ज्वालामुखी फटेगा,
या तूफ़ान आयेगा,
या कोई बाढ़ या अकाल,
काल के गाल की तरह,
इस धरती को निगल जायेगा.....?

संवेदनहीनता,
विकृत मानसिकता,
मजबूर संस्कृति,
नाकाम सभ्यता,
मानव से बिछड़ी मानवता,
प्रलय नहीं तो क्या हैं .....?

 

गुरुवार, 5 मई 2011

चिड़िया............. संध्या शर्मा


ये नन्ही सी चिड़िया, मेरे बचपन की साथी,
 मुझसे बातें करती, मेरे संग थी गातीं .
इनका साथ मुझे खूब भाता,
पिछले जन्म का कुछ तो था नाता .
दिन भर इन्हें दाने थी चुगाती,
धूप में रहने पर माँ थी डांटती .
जैसे तैसे रात होती,
तो सपनों में मैं चिड़िया होती.
सुनहरे से पंखों वाली चिड़िया,
सुनहरी थी जिसकी दुनिया.
ज़ोर से दौड़ लगाती,
और दूर गगन में उड़ जाती.
कभी तितली संग इठलाती,
तो कभी भौरों संग गुनगुनाती.
सुबह जागती तो बड़ी खुश होती,
सपने वाली बातें माँ से कहती.
माँ पहले तो खूब हंसती,
फिर मुझसे यही कहती.
उड़ने अकेले मत जाया कर,
शैतान भाई-बहनों को भी संग ले जाया कर.
मैं जैसे-जैसे बड़ी होती गई,
वैसे-वैसे चिड़ियाँ कम होती गईं.
दाने अब भी डालती हूँ,
पर उन्हें वहीँ पड़ा पाती हूँ.  
न अब चिड़ियाँ  इन्हें चुगने आती है ,
और माँ भी बस यादों में ही आती है.
एक दिन अचानक...
एक चिड़िया मेरे घर में नज़र आई,
ख़ुशी से मेरी आँखें छलक आई.
मैंने पूछा इतने दिनों तक कहाँ थी,
मुझसे मिलने क्यों नहीं आती थी.
वह बोली.....!
मैं भी तुम्हे खोजती थी,
तुमसे मिलना चाहती थी.
उड़कर इधर उधर घूमती थी,
हर बार भटक जाती थी.
इंसानों ने जो ऊँचे-ऊँचे टॉवर लगाये हैं,
ये ही हमारे लिए मुसीबत लाये हैं.
हमें जाना कहीं और होता है,
और चले कहीं जाते हैं.
ये हमें बहुत सताते हैं,
हमें दिशा भ्रमित कर जाते हैं.
इतना कहकर वह फुर्र से उड़ गई,
और मुझे सोचने के लिए छोड़ गई.
मैं तो अभी भी चिड़िया ही बनना चाहती हूँ,
ऊँचे गगन में जी भरके उड़ना चाहती हूँ.
अब मैं इस सपने का क्या करूँ,
अगले जनम में चिड़िया बनूँ या न बनूँ ........     
   

सोमवार, 2 मई 2011

मंज़िल......... संध्या शर्मा


ज़िंदगी में हर लम्हा मिला एक रास्ता,
मंज़िल थी पर कहाँ, क्या पता?
कदम बढ़ते रहे, कई मोड़ से गुज़रे,
कभी सहारे मिले, कभी रह गए अकेले.
कभी सुकून मिला पाकर?
कभी घबराये इनको खोकर.
राह मिलती गई, पर अंत अभी न आया है,
मगर हर राह से, कुछ ना कुछ तो पाया है.
अपनी रफ़्तार मैं बढाने लगी,
मंज़िल नज़दीक और आने लगी.
उम्मीद दे रही है मुझको सदा,
किसी ना किसी राह पर, हर ग़म, हर उलझने हो जाएँगी जुदा......