बुधवार, 26 मार्च 2014

सत्ता सुख और लोककल्याण- अभी रोग दूर होना शेष है...

लोककल्याण की आकांक्षा धारण किए विश्व इच्छा और कल्पना के भयानक युद्ध का अखाडा बना हुआ है. जब भी इच्छा और कल्पना के बीच संघर्ष होता है मनुष्य के सदविचार व्यर्थ हो जाते हैं और दुर्विचार फलीभूत होने लगते हैं . इच्छा और कल्पना का संघर्ष मानसिक दुर्बलता उत्पन्न करता है। वर्त्तमान में ऐसी ही मानसिक अवस्था वाले मनुष्यों में सत्ता पाने की इच्छा और सत्ता सुख की कल्पना का सतत संघर्ष चल रहा है .
 
जनता ऐसी बीमार मानसिकता से अपने लिए शुभ की चाह करती है और अपनी कल्पना के नायक को तलाशती है। क्या नायक बदलने से इच्छा और कल्पना का यह दुखदाई संघर्ष समाप्त होगा? यह तो वही बात हो जाएगी कि मानसिक रोगी के तन का इलाज़ कर उसके स्वस्थ होने की कामना करना। इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए आवश्यकता है "प्रायश्चित" की। यदि नायक और जनता दोनों ही अपनी-अपनी भूलों का प्रायश्चित करें, वह भी पूर्ण ईमानदारी के साथ, तो इच्छा और कल्पना के संघर्ष का प्रथम दौर थम सकता है. लेकिन सावधान!! प्रथम दौर को शांत करना ही ध्येय नहीं है, प्रायश्चित करने से पाप दूर हुआ अभी रोग दूर होना शेष है।
 
इच्छा और कल्पना के बीच संघर्ष में सदैव कल्पना विजयी हुई है . पाप के प्रायश्चित से इच्छा का शमन होगा शेष रहेगी कल्पना! कल्पना की शक्ति बहुत प्रबल है, इसका उपयोग सार्थक उद्देश्यों के रूप में करने के लिए दूसरा संघर्ष शुरू करना होगा, जिसे पाप मुक्त शुद्ध आत्माओं वाले मनुष्यों द्वारा करना होगा . यही शुद्ध आत्माएं जनहित में नया घोषणापत्र तैयार करती हैं, और जन समर्थन से नई व्यवस्था का जन्म होता है.

लेकिन अभी भी सावधान रहने की आवश्यकता है।  कोई भी व्यवस्था अधिक समय तक शुद्ध नहीं रह सकती। इस नई व्यवस्था में भी कुछ समय बाद इच्छा और कल्पना का वही पुराना संघर्ष आरम्भ हो जाता है।  पुनः प्रायश्चित और शुद्धिकरण की  आवश्यकता आन पड़ेगी पुनः एक नई व्यवस्था को जन्म लेना होगा इसीलिए इस "प्रायश्चित और शुद्धिकरण" की प्रक्रिया को निरंतर चलते रहना होगा। यह प्रक्रिया सतत  चलते रहेगी तो मानव जीवन शुचिता पूर्ण होकर निष्कंटक बना रहेगा तथा इसके सामाजिक घटकों से निर्मित राज्य लोक कल्याणकारी होगा।

शनिवार, 15 मार्च 2014

बिरज में होली रे कन्हाई …



बिरज में आज होली रे भाई 
सखियों संग नाचे रे राधिका
खेलत फाग अबीर हिलमिल 
ग्वालन संग  कुवंर कन्हाई
बिरज में आज होली रे भाई …

बाजत ताल मृदंग झांझ डफ
मंजीरा संग गुंजत शहनाई
उड़त गुलाल लाल भए बदरा
भई केसर रंग की छिड़काई
बिरज में आज होली रे भाई …

अबीर गुलाल हाथ पिचकारी 
गोपियाँ केसर रंग घोल लाईं 
पड़ गओ पाला रे नंदलाल से
झमकत टेसू रंग अबीर उड़ाई
बिरज में आज होली रे भाई …

लाल हरा गुलाबी रे सतरंगी 
नव कुसुम नव पल्लव फूले 
मुस्कावे मुख निरख-निरख
कैसे न होवे फ़िर यहाँ ढिठाई 
बिरज में आज होली रे भाई … 

इत भीजे पीलो पीताम्बर 
उत भीजे नवरंगी लहंगा 
धनक पहन फिरे लहरिया 
मानो इंदर ने झड़ी लगाई
बिरज में आज होली रे भाई …

श्याम रंग में रंगो वृंदावन
भेदभाव के टूटे सारे बंधन 
झूमें न्यारो अम्बर घन घन 
दुवार दुवार पे बजत बधाई
बिरज में होली खेले कन्हाई …

आपको और आपके परिवार को होली की ढेर सारी शुभकामनाएं

मंगलवार, 11 मार्च 2014

स्मृतियाँ

यही है वह एकांत
वही पेड़ और शाखाएं
स्मृतियों की छायाएँ
यहीं से उगा था
चाँद प्रीत का
यहीं मिले थे पहली बार
ठीक उसी जगह जा पहुंचे
जो जगहें जानी पहचानी थी
हमारा स्वागत नहीं करतीं
फिर क्यों आ जाते हैं यहाँ
बार-बार  ………!!


शायद कोई फ़ागुनी  बयार                                          
उतार फेंके पातों के पीले पर्दे
सूनी डालों पर हरियाए
कुछ अपनापन
अलसाई दुपहरी में                   
बौरा उठे इनका भी मन                    
इन सूनी घडि़यों में
मन की बनकर धड़कन                                
देखो एक कली कुलबुलाई
सेमल के अरुण कपोलों पर
वासंती लाली छाई..........

शनिवार, 8 मार्च 2014

ना जाने कब....??


रसोई - घर- आंगन
खेत - खलिहान
चकरघिन्नी सी
फिरती रहती है
दिन भर वह
जीवन सहेजने की 
कोशिश में
खुद को निहारे
वर्षों बीत गए
तरुणाई की जगह
कब झुर्रियों ने ले ली
इस तेज़ दौड में
एहसास तक नहीं
उसके थके क़दमों को 
आराम की आस नहीं
आज भी खोजती है 
अपने अस्तित्व को सिर्फ
सिन्दूर, चूड़ी, महावर में
ना जाने कब कर सकेगी
अपने व्यक्तित्व का विस्तार
दे सकेगी बंधन से परे
अस्तित्व को सही आकार ......??

शनिवार, 1 मार्च 2014

अन्नदाता की पुकार ....

"इश्क, मोहब्बत, व्यापार हो या हो कोई सरकार  
पेट में जब तक पड़े न रोटी, सब कुछ है बेकार!!!"

असमय बारिश
आंधी तूफ़ान
रूठ गया क्यों
इनसे भगवान
जस का तस
इनका दर्द
बढ़ता जाता
क़र्ज़ का मर्ज़
गीली आखें
पोंछ रहा
चुपचाप खड़ा
देख रहा
पानी में मिलते
खून पसीने से सिंचे
खेत - खलिहान
हलाकान- परेशान
कोई है जो सुने.... ?
धरती का कर्ज चुकाते
कृषि-प्रधान देश के
इन किसानो की
दु:ख-भरी दास्तान ...!!!