गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वागत नवीनता का ...

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता। सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो हर परिवर्तन नवीनता से भरपूर होता है, तो आइये इस नवीनता का स्वागत करें। नववर्ष आप सबके लिए मंगलकारी हो..... 



क्या होगा
क्यों होगा
कब होगा
कैसे होगा
नई शंकाएँ
नए सवाल
जो होगा
जब होगा
तभी होगा
समय भी पाबंद है
खुद समय का
चाहकर भी 
नही लाँघ सकता
समय की सीमा 
क्यों न साथ चलें...
संध्या शर्मा

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

समझ...

इस ब्रह्माण्ड की 
दसों दिशाओं ने
शस्य स्यामला धरा की
मुस्काती फिजाओं ने
महकती हवाओं ने
झूमती लताओं ने
बल-खाती नदियों ने
कल-कल बहते झरनों ने
माटी के धोरों ने
कर्मठ शूरवीरो ने
मिट्टी के कण कण ने
स्वदेश के जन जन ने
कह दी अमर कहानी
सब गर्वित हैं मातृभूमि पर
सिवाय उनके ....
जो बैठे रहे सिर्फ ढोंग रचाकर
न खुद समझ सके 'देशप्रेम'
न किसीको समझा पाए...

बुधवार, 25 नवंबर 2015

कार्तिक पूर्णिमा सनातन पर्व...

आज कार्तिक स्नान पूर्णिमा है, सनातन परम्परा है कि इस पर्व पर नदी स्नान एवं दान से पुण्य की प्राप्ति होती है। सनातन धर्म में व्रत, स्नान-दान का अत्यधिक महत्व है। एक वर्ष में पंद्रह पूर्णिमाएं होती हैं, परन्तु जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर १६ हो जाती है। इस बढी हुई पूर्णिमा को महत्वपूर्ण मानते हुए महापूर्णिमा भी कहा जाता है। पुराण इस पर्व की महत्ता बताते हैं, इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था। वैष्णव मत में कार्तिक पूर्णिमा को अधिक मान्यता है इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।

कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है। इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फल मिलता है।

एक अन्य मान्यतानुसार महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए तो भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इसलिए इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।

सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।

मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है। इस दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। लोग श्रद्धानुसार समीपस्थ नदी, सरोवरों में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं।
संध्या शर्मा नागपुर (महाराष्ट्र)

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

लोकपर्व आंवला नवमी...

मारा भारत उत्सव एवं पर्वों का देश है। वैदिकपर्व, पौराणिकपर्व, लोकपर्व, राजकीयपर्व के साथ मनकीयपर्व भी मनाए जाते हैं। मनकीयपर्व से आशय है कि जब मन किया तब उत्सव मना लिया। इस तरह हम चाहे तो वर्ष के प्रत्येक दिन पर्व मना सकते हैं। इसे हमारी उत्सवधर्मिता ही कही जानी चाहिए। परन्तु हमारी संस्कृति में लोकपर्वों का अत्यधिक महत्व है, इन्हें मनाने के लिए किसी के द्वारा नियत तिथि को बाध्य नहीं किया जाता। ये लोक में रचे बसे हैं, हमारी परम्परा में सतत चले आ रहे हैं। 

इन्ही लोकपर्वों में से आज आंवला नवमी है, जिसे कार्तिक मास की शुक्लपक्ष की नवमी को मनाया जाता है। आंवला नवमी को अक्षय नवमी भी जाता है। लोक मान्यता है कि इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। कहा जाता है कि आंवला भगवान विष्णु का पसंदीदा फल है। आंवले के वृक्ष में समस्त देवी-देवताओं का निवास होता है। इसलिए इस की पूजा करने का विशेष महत्व एवं फ़ल होता है। नाम से विदित है कि इस दिन आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है तथा अखंड सौभाग्य की कामना से रात्रि भोजन आंवला वृक्ष के समीप ही किया जाता है जिससे आरोग्य व सुख की प्राप्ति होती है।

प्रत्येक लोकपर्वों के साथ कोई न कोई कहानी जुड़ी होती है, जो इन्हें लोकपर्व होने की मान्यता देती है। आंवला नवमी की भी एक कहानी है। कहते हैं कि काशी नगर में एक निःसन्तान धर्मात्मा तथा दानी वैश्य रहता था। एक दिन वैश्य की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराए लड़के की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तो तुम्हे पुत्र प्राप्त होगा। यह बात जब वैश्य को पता चली तो उसने अस्वीकार कर दिया। परन्तु उसकी पत्नी मौके की तलाश मे लगी रही। एक दिन एक कन्या को उसने कुएं में गिराकर भैरो देवता के नाम पर बलि दे दी इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ। लाभ की जगह उसके पूरे बदन में कोढ़ हो गया तथा लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी। वैश्य के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी। इस पर वैश्य कहने लगा गौवध, ब्राह्यण वध तथा बाल वध करने वाले के लिए इस संसार मे कहीं जगह नहीं है इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर तथा गंगा में स्नान कर तभी तू इस कष्ट से छुटकारा पा सकती है।

वैश्य पत्नी गंगा किनारे रहने लगी कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्धा का वेष धारण कर उसके पास आयी और बोली तू मथुरा जाकर कार्तिक नवमी का व्रत तथा आंवला वृक्ष की परिक्रमा कर तथा उसका पूजन कर। यह व्रत करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जाएगा। वृद्धा की बात मानकर वैश्य पत्नी अपने पति से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आंवला का व्रत करने लगी। ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र प्राप्ति भी हुई। व्यापारी की पत्नी ने बड़े विधि विधान के साथ पूजा की और उसके शरीर के सभी कष्ट दूर हुये | उसे सुंदर शरीर प्राप्त हुआ | साथ ही उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई | तब ही से महिलायें संतान प्राप्ति की इच्छा से आँवला नवमी का व्रत रखती हैं |

इस तरह लोकपर्वों के केन्द्र में परिवार एवं परिजनों के सुख की कामना ही होती है।  स्त्री का सौभाग्य पति के साथ जुड़ा हुआ है। जो व्रत धारण करके पति के स्वास्थ्य की रक्षा के साथ स्वयं का सौभाग्य अखंड रखने की प्रार्थना दैवीय शक्तियों से की जाती है तथा इस त्यौहार में पर्यावरण के प्रति भी चेतना जागृत करने का संदेश निहित है। अगर हम वृक्षों की पूजा करेगें तो उन्हें नष्ट नहीं करेगें जिससे हमारा स्वास्थ्य एवं पर्यावरण मानव के रहने के लायक बनेगा। सभी को आंवला नवमी की शुभकामनाएं। वृक्ष लगाए, बचाएं और पर्यावरण को अक्षुण्ण रखें। 
संध्या शर्मा (नागपुर)

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

मेरा चाँद ...

मेरा चांद समझता है
मेरे चूड़ी, बिछुए, झुमके
पायल की रुनझुन बोली
सुन लेता है, वह सब
जो मुझे कहना तो था
लेकिन किसीसे ना बोली
पढ़ लेता है मेरी
आँखों की भाषा
हरपल बिखेरता रहता है
स्नेह की स्निग्ध चाँदनी
अमृत बरसाता है
अहसास दिलाता है
जीवन की धुरी हूँ मैं
अधूरा है वह मेरे बिना
कभी आधा नही होता
मेरा चाँद .....
मेरी खुशी में पूनम सा
जरा सी नाराजगी से
अमावस भले हो
वह चमकता चांद है
मेरी दुनिया के आसमान का
मैं शीतल किरणों में लिपटी
उसकी रौशनी से रौशन
धरती की तरह ..
 ('करवा चौथ' के मंगल पावनपर्व पर हार्दिक शुभकामनायें ....)

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

मुश्किल है बहुत मुश्किल ...

ज़िन्दगी अपनी
दास्तान अपनी
अदालत अपनी
अपने मुक़दमे
पैरवी अपनी
वादे, यादें
ख्याल, तजुर्बे
वक्त के बदलाव से
सब बदल जाते हैं
मुंसिफ बनकर
कोई फैसला देना
मुश्किल है
बहुत मुश्किल ...

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

नदियों के संरक्षण हेतु “मीडिया चौपाल” ग्वालियर में देश भर से होगा जुटान ...

नदियाँ प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जनमानस की भावनात्मक आस्था का आधार होने के साथ-साथ सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सम्पूर्ण मानवता व सभ्यता का अस्तित्व  नदियों के अस्तित्व पर ही है। नदियां या तो मृतप्राय हो चुकी हैं या सूख गई हैं। मानव की अदूरदर्शिता, प्राचीन परम्परा तथा देश का कथित विकास इसके लिए जिम्मेवार है। हमारा लक्ष्य नदियों के अविरल और निर्मल प्रवाह को पुनः प्राप्त करना है। नदियों के क्षरण  रोकने के लिए मीडिया के साथ, नागरिकों व सामाजिक संगठनों को इस दिशा में त्वरित कदम उठाना होगा और अगर हम अब भी सजग ना हुए तो अगली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी. 

चिंता का मुख्य विषय यह है कि कैसे अकाल मौत का शिकार हो रही नदियों को पुनर्जीवन दिया जाए। नदियों में घटता पानी कैसे बढ़ाया जाए। नद जल में बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम कैसे हो। नदियों के किनारे, जमीन और जलग्रहण क्षेत्र को कैसे बचाया जाए। नदियों से जुड़े जन-जीवन, संस्कृति, खेती, जैव विविधता की रक्षा कैसे की जाए। शासन और समाज को नदी का अर्थशास्त्र कैसे समझाया जाए। इन सब महत्वपूर्ण कार्यों में सरकार, स्वयंसेवी संस्थाओं और समाज की भूमिका क्या हो। 

स्पंदन संस्था,  भोपाल  वर्ष 2012 से मध्य प्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् के साथ मिलकर चौपाल का आयोजन कर रही है. नदी संरक्षण विषय पर राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, भारत सरकार के सहयोग से इस वर्ष भी राष्ट्रीय मीडिया कार्यशाला (मीडिया चौपाल) 11-12 अक्टूबर 2015 को गालव सभागार, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर, मध्यप्रदेश में आयोजित की गई है। जिसमे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, राज्यसभा सांसद प्रभात झा, सीनियर ब्यूरोक्रेट उमाकांत उमराव सहित देश भर से जल संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिक, प्रोफ़ेसर, मीडिया कर्मी, ब्लागर, सोशल मीडिया एक्टिविस्ट, रंगकर्मी साहित्यकार, कालमनिस्ट, छात्र, एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता बड़ी संख्या में भाग लेंगे। दो दिनों तक चलने वाले विभिन्न सत्रों में इस सब पर व्यापक मंथन होगा।  कार्यक्रम के मुख्य आयोजक स्पंदन संस्था के संयोजक श्री अनिल सौमित्र हैं । जिसमें 

मुख्य विषय : नदी संरक्षण में मीडिया की भूमिका
उप-विषय :
भारत की नदियां : कल, आज और कल
मध्यप्रदेश की नदियां : कल, आज और कल
जनमाध्यमों में नदियां : स्थिति, चुनौतियां और सम्भावनायें हैं ।

आयोजक संस्था इस वर्ष एक "स्मारिका" का प्रकाशन कर विगत वर्षों में  हुए मीडिया चौपाल की जानकारी, सहभागियों का परिचय मीडिया और नदी विषय से जुड़े शोध व विचारों की जानकारी भी देगी। 

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

मनोकामना सिद्ध महालक्ष्मी उत्सव...



महाराष्ट्र में महालक्ष्मी का तीन दिवसीय पर्व भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी से आरम्भ होता है। "महालक्ष्मी आली घरात सोन्याच्या पायानी भर भराटी घेऊन आली सर्व समृद्धि घेऊन आली, पंक्तियों के साथ महालक्ष्मी की अगवानी की जाती है। माता लक्ष्मी सपरिवार पधारें व हर घर में सुख समृद्धि और सदैव लक्ष्मी का वास हो ऐसी मनोकामनाओं के साथ इस तीन दिवसीय महालक्ष्मी उत्सव का आयोजन कर कई पीढिय़ों से चली आ रही परंपरा का बडी ही श्रद्धा व उत्साह से निर्वाह किया जाता है। आकर्षक सज्जा और तीन दिनों तक विविध आयोजन किए जाते हैं।

लक्ष्मी ‘लक्ष्य’ शब्द से बना है। जिसका अर्थ होता है ‘चिन्ह।’ लेकिन किस चिन्ह विशेष से लक्ष्मी बनी है, यह अज्ञात है। वह मानते हैं कि स्वस्तिक चिन्ह लक्ष्मी का ही प्रतीक है। लक्ष्मी की पूजा में आज भी स्वस्तिक चिन्ह बनाया जाता है। दिवाली के दिन व्यापारी अपने बही-खाते में स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर ‘शुभ- लाभ’ लिखते हैं और उसकी पूजा करते हैं।

माँ लक्ष्मी के 8 रूप माने जाते है | हर रूप विभिन्न कामनाओ को पूर्ण करने वाला है | दिवाली और हर शुक्रवार को माँ लक्ष्मी के इन सभी रूपों की वंदना करने से असीम सम्पदा और धन की प्राप्ति होती है |

१) आदि लक्ष्मी या महालक्ष्मी :

माँ लक्ष्मी का सबसे पहला अवतार जो ऋषि भृगु की बेटी के रूप में है।

२) धन लक्ष्मी :

धन और वैभव से परिपूर्ण करने वाली लक्ष्मी का एक रूप | भगवान विष्णु भी एक बारे देवता कुबेर से धन उधार लिया जो समय पर वो चुका नहीं सके , तब धन लक्ष्मी ने ही विष्णु जी को कर्ज मुक्त करवाया था |

३) धन्य लक्ष्मी :

धन्य का मतलब है अनाज : मतलब वह अनाज की दात्री है।

४) गज लक्ष्मी :

उन्हें गज लक्ष्मी भी कहा जाता है, पशु धन की देवी जैसे पशु और हाथियों, वह राजसी की शक्ति देती है ,यह कहा जाता है गज - लक्ष्मी माँ ने भगवान इंद्र को सागर की गहराई से अपने खोए धन को हासिल करने में मदद की थी । देवी लक्ष्मी का यह रूप प्रदान करने के लिए है और धन और समृद्धि की रक्षा करने के लिए है।

५) सनातना लक्ष्मी :

सनातना लक्ष्मी का यह रूप बच्चो और अपने भक्तो को लम्बी उम्र देने के लिए है। वह संतानों की देवी है। देवी लक्ष्मी को इस रूप में दो घड़े , एक तलवार , और एक ढाल पकड़े , छह हथियारबंद के रूप में दर्शाया गया है ; अन्य दो हाथ अभय मुद्रा में लगे हुए है एक बहुत ज़रूरी बात उनके गोद में एक बच्चा है।

६) वीरा लक्ष्मी :

जीवन में कठिनाइयों पर काबू पाने के लिए, लड़ाई में वीरता पाने ले लिए शक्ति प्रदान करती है।

७) विजया लक्ष्मी या जाया लक्ष्मी :

विजया का मतलब है जीत। विजय लक्ष्मी जीत का प्रतीक है और उन्हें जाया लक्ष्मी भी कहा जाता है। वह एक लाल साड़ी पहने एक कमल पर बैठे, आठ हथियार पकडे हुए रूप में दिखाई गयी है ।

८) विद्या लक्ष्मी :

विद्या का मतलब शिक्षा के साथ साथ ज्ञान भी है ,माँ यह रूप हमें ज्ञान , कला , और विज्ञानं की शिक्षा प्रदान करती है जैंसा माँ सरस्वती देती है। विद्या लक्ष्मी को कमल पे बैठे हुए देखा गया है , उनके चार हाथ है , उन्हें सफेद साडी में और दोनों हाथो में कमल पकड़े हुए देखा गया है , और दूसरे दो हाथ अभया और वरदा मुद्रा में है.

मान्यता है कि माता लक्ष्मी के जिन रूपों की पूजा की जाती है वो जेठानी व देवरानी हैं। अपने दो बच्चों के साथ वे इन दिनों मायके आती हैं। मायके में आने पर तीन दिनों तक उनका स्वागत किया जाता है। पहले दिन स्थापना, दूसरे दिन भोग और तीसरे दिन हल्दी कुमकुम के साथ माता की विदाई। तीनों दिनों में महालक्ष्मी की प्रतिमा ज्येष्ठा व कनिष्का का विशेष शृंगार किया जाता है। ज्येष्ठा लक्ष्मी को दरिद्रा कहा गया है और इसके आने की आहट ही प्राण हरण जैसी दुखदाई होती है। लोग इसे जाते हुए देखकर ही खुश होते हैं। इस पर्व में कनिष्ठा के संग ज्येष्ठा भी पूजित होती है। कहा जाता है कि पीहर की महिमा ही अलग है, वहां तो सभी बेटियों को बराबर मान मिलता है।

गुझियों का फुलहरा बांधकर की जाती है महालक्ष्मी की पूजा । घरों में तरह-तरह के पकवान बनते हैं। यह पूजा विशेषकर घर की बहुओं द्वारा की जाती है। लक्ष्मी की इन मूर्तियों की स्थापना अनाज मापने वाली पायली के ऊपर की जाती है, जिसमे अंदर गेहूं और चावल भरे जाते हैं, जो इस बात का प्रतीक है कि घर धन-धान्य से भरा रहे।

महालक्ष्मीजी की विदाई में विशेष दाल, चावल, गुझिया, मोदक, चिरवंट, सेवइयां की खीर व अनेक तरह के मिष्ठान सहित विशेष रुप से सोलह प्रकार की सब्जियों का भोग लगाया जाता है। पुरणपोली, पातलभाजी के साथ छप्पन भोग लगाया जाता है। छप्पन भोगों में पुरणपोली, सेवइयां, चावल की खीर, पातलभाजी, तिल्ली, खोपरा, खसखस तथा मूंगफली के दाने की चटनी, लड्डू, करंजी, मोदक, कुरोडी, पापड़, अरबी के पत्ते आदि का भोग लगाया जाता है। विशेष रूप से ज्वार के आटे की आम्बिल और पूरणपोली का महाप्रसाद प्रमुख होता है। छप्पन पकवान तैयार कर केले के पत्ते पर भोग लगाया जाता है। इसके बाद परंपरानुसार सर्वप्रथम सुहागिनों को भोजन व प्रसाद का वितरण किया जाता है। तदुपरांत बंधु-बांधव व कुटुंब सहित महाप्रसाद भोज किया जाता है। मान्यता है कि माता लक्ष्मी की आराधना से सुख संपन्नता व समृद्धि के साथ-साथ सभी मनोकामना पूर्ण होती है।

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

बेटियों से ही तीज त्यौहार के रंग...

भारत देश उत्सव, पर्वों, रंगों एवं विभिन्न संस्कृतियों का संगम है,यहां साल भर, हर मौसम में प्रतिदिन त्यौहार मनाए जाते हैं यह हमारी
प्राचीन एवं उन्नत संस्कृति का परिचायक है। इन त्यौहारों में हमारी उत्सवधर्मिता एवं संस्कारों की झलक दिखाई देती है. त्यौहारों का यह देश अपनी विविधता में एकता के लिए ही विश्व भर में जाना जाता है। 

रक्षाबंधन हमारी संस्कृति की पहचान है और ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पौराणिक महत्व रखने वाले इस त्यौहार पर हर भारतवासी को गर्व है। लेकिन वर्तमान समय में भारत में इस पर्व को गंभीरता से लेने की आवश्यक है, क्योंकि एक तरफ तो  बहनों की रक्षा के लिए इस विशेष पर्व को मनाया जाता है वहीं दूसरी ओर कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराधों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है। यदि कन्या-भ्रूण हत्या पर जल्द ही काबू नहीं पाया तो देश में लिंगानुपात और भी अधिक तेज  गति से घट जाएगा जिससे सामाजिक असंतुलन बढ़ेगा। 

सख्त कानून और जागरूकता अभियानों के बावजूद देश में लिंगानुपात में तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। विकास के मुद्दे पर चुनाव
लड़ रही राजनीतिक पार्टियों के लिए आधी आबादी आज भी कोई मुद्दा नहीं है. 2001 से 2011 के बीच शिशु लिंगानुपात में तेज गिरावट दर्ज की गई है.  2011 की जनगणना के अनुसार स्त्री-पुरुष लिंगानुपात 940 प्रति हजार है, लेकिन 0-6 वर्ष के बच्चों में लड़कियों का अनुपात घटकर महज 914 ही रह गया है। गणना के दौरान यह भी पता चला कि हरियाणा में ऐसे 70 गांव हैं जहां कई वर्षों से एक भी बच्ची ने जन्म नहीं लिया है। ऐसे में ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ जैसे नारे महज छलावा लगते हैं। 

बेटी को बोझ समझने की मानसिकता को बदलना होगा, तभी हम स्वस्थ व संतुलित समाज की कल्पना को साकार करने में सफल होंगे। महिलाओं को स्वयं आगे बढ़कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए प्रयास करने होंगे। बेटियाँ होगी तभी हम तीज त्यौहार मना सकेगें। बेटे -बेटी के भेदभाव को खत्म करके संतुलित समाज की स्थापना होगी। तभी इस पर्व की सच्ची सार्थकता होगी।  हम आशा करते हैं कि और रक्षाबंधन का यह त्यौहार हमेशा हर्षोल्लास के साथ मनाए जाएगा और हर भाई को बहन के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाता रहेगा। 

बुधवार, 19 अगस्त 2015

इतिहास के झरोखे से : रानी दुर्गावती...

जन्म स्थान होने की वजह से अनेको बार इस स्थान को देखा है, उस वक़्त भी जब यह पर्यटकों के लिए पूर्णतः खुला था। आजकल इस किले की ऊपरी मंज़िल पर जाने वाली सीढ़ियों पर सुरक्षा की दृष्टि से ताला लगा दिया गया है.

गढ़ा की मुख्य सड़क से अंदर के रास्ते पर सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के साथ-साथ काले पत्थर अनेक रूपों में दिखाई देते हैं, जिसमे से एक विश्व प्रसिद्ध संतुलित शिला भी है. 
    
जबलपुर के मदन महल में एक पहाड़ी पर स्थित गोंड रानी दुर्गावती का किला जो लगभग सन् १११६ मे राजा मदन शाह द्वारा बनवाया गया था। आज भी उनके अनुपम तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता की कहानी कहता शीश उठाये खड़ा है। 


महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई0 की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नामदुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोंडवाना के राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपत शाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था।


दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण था। अतः रानी ने गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। 
रानी दुर्गावती के इस सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। तथाकथित महान मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा. रानी ने यह मांग ठुकरा दी.

इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया. एक बार तो
आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।

अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला. आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया. तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका. दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अपना अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान कर दिया।महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपने आत्म बलिदान से पूर्व पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां जाकर लोग अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती यूनिवर्सिटी भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है। 

शनिवार, 15 अगस्त 2015

तस्वीर सच्चे भारत की ...

आज का दिन हमें अमर शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष व बलिदान की याद दिलाता है। हमें आत्मचिन्तन करने तथा महान देशभक्तों के सपनों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी, न तो हम भाषा की दृष्टि से आजाद हो पाये हैं और न ही व्यवस्थाओं की दृष्टि से । आज आज़ादी के नाम पर हम अंग्रेजी गुलामी में जी रहे हैं, सभी व्यवस्थाओं का स्वदेशीकरण करना होगा, जो दुर्भाग्य से नहीं हुआ, इस आधी अधूरी आजादी के स्थान पर हमें पूरी आजादी लानी होगी।  जब हम अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठा सकते हैं , सरकार बदल सकते हैं, तो इस दिशा में भी प्रयास क्यों नही?? 
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं ...जय हिन्द



खेत - खलिहान की संगत में संवर जायेंगे 
अपने शहरों को ज़रा गाँव तक लाकर देखो  

खुद बखुद आएगी बचपन की चमक आँखों में 
नाव कागज़ की कभी बारिश में चलाकर देखो

सच्चे भारत की तस्वीर बनाना चाहते हो तो 
दीवार नफरत की एक रोज गिरा कर देखो

मांगते रहोगे तो बस भीख ही मिल पायेगी 
अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाकर देखो ....

बुधवार, 12 अगस्त 2015

जहां गांधर्व नृत्‍य पर रेणुका मुग्‍ध हुई - संध्‍या शर्मा

भारत में तीर्थस्‍थलाें का अपना सुदीर्घ सिलसिला है। ये तीर्थ केवल भ्रमण के लिए ही नहीं, आत्मिक शांति प्रदान करते हैं और आध्‍यात्मिक निष्‍ठा को चिरायु करते हैं। यह तीर्थों का देश है। ग्राम-ग्राम ही नहीं, पर्वत-पर्वत और नदी-नदी भी तीर्थों का सुंदर समागम है। महाराष्‍ट्र में नागपुर से लगभग 220 किलोमीटर की दूरी पर यवतमाळ व नांदेड जिले की सीमा पर स्थित माहुरगढ़ देवी रेणुकामाता के प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इसे आदिशक्ति के साढ़े तीन पीठों में से एक पूर्णपीठ माना जाता है। शक्तिसंगम तंत्रादि में देश के जिन शक्तिपीठों की महिमा मिलती है, यह क्षेत्र उनसे अतिरिक्‍त होकर भी देवी कृपाकांक्षियों के लिए सुख्‍यात है। नागपुर से करीब छह घंटे माहुर पहुंचने में लगते हैं। देर रात तक यहां पहुंचने वालों का सिलसिला निरंतर रहता है किंतु दर्शनों के लिए सुबह की वेला ही उचित होती है। यहाँ कई दर्शनीय स्थल हैं, जिनके दर्शन पुण्‍य का सेतु है। कतिपय तीर्थों का परिचय यहां दिया जा रहा है। 

अनुसूया माता मंदिर-
यहां आने वाले सर्वप्रथम अनुसूयामाता मंदिर जाना उचित समझते हैं। यह रामायणकाल की स्‍त्री शक्ति के प्रति श्रद्धा का धाम है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 187  सीढ़ियाँ चढ़नी होती हैं। वैसे शिखर के लिए सीढ़ियों से लगा हुआ एक कच्चा मार्ग भी है, परन्तु आने-जाने वाले सीढ़ी के रास्ते जाने और कच्चे मार्ग से वापसी को उचित बताते हैं। हमने उनका अनुसरण किया। सुन्दर प्राकृतिक परिसर में भव्य मंदिर स्थित है, जहां माता अनुसूया अपने माता-पिता सहित विराजमान है। यहां पहुंचकर नारी की उ‍स शक्ति को बरबस प्रणाम हो जाता है जिसके संकल्‍पों में सृष्टि की रचना का पराक्रम होता है। यह देवी धैर्य, धर्म की धरा-धुरि सी दिखाई देती है।

दिव्‍य दत्तशिखर -
इसके पश्चात् दत्तशिखर की ओर कदम बढ़ते हैं। यहाँ पहुँचना बहुत आसान होता है। गाड़ी सीधे मंदिर के द्वार तक पहुँच जाती है। मंदिर का मुख्यद्वार बड़ा ही आकर्षक और विशाल है. यह स्‍थापत्‍य ही जन जन में इसके श्रद्धाधाम होने का सूचक है। दत्‍तात्रेय की पूरे सह्याद्रि क्षेत्र से लेकर दक्षिण तक विशेष मान्‍यता रही है। पुराणों में दत्‍तात्रेय की महिमा मिलती है और यहां पहुंचकर शब्‍दों की सत्‍ता के भी दर्शन होते हैं। सुन्दर प्राकृतिक परिसर में भव्य मंदिर स्थित है, जहाँ भगवान दत्तात्रय की मनोहारी मूर्ति शोभायमान है. कहा जाता है कि इस स्थान पर भगवान् दत्तात्रय ने तपस्या की थी जिसके कारण यह "दत्तशिखर" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यूं भी साधना के शिखर पर चढ़कर महात्‍माओं ने देश के कई कई पर्वत शिखरों को प्राणमयी ऊंचाइयां प्रदान की है। दत्तशिखर के समीप ही एक पुराना किला भी है। यह बहमनी सुलतान के राज्य का हिस्सा था तथा स्वतंत्रता के पूर्व इस स्थान पर हैदराबाद के निज़ाम का राज था।   

महिमामय माहुरगढ़ -
इसी क्षेत्र में माहूर गांव से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर भगवती रेणुकादेवी का प्राचीन मंदिर है। महाराष्‍ट्र में प्रासादों की एक स्‍थानीय शैली रही है- हेमाड़पंथी। इस शैली में ही यह मंदिर निर्मित है। पर्वतीय अंचलों में अनुकूलता के अनुसार प्रासादों का निरापद निर्माण हुआ जो मौसम सहित जन-मन के लिए विहारी माने जाते हैं। यहां यह विशेषता लगती है ही। यह मंदिर एक चारु पहाड़ी पर अपने शिखर को नई ऊंचाइयां देता प्रतीत होता है। ऐतिहासिक स्रोत सिद्ध करते हैं कि इस मंदिर की नीव देवगिरी राज्‍य के यादव राजा ने 9वीं शताब्दी में डाली थी। दशहरा यहां का मुख्‍य उत्‍सव है। यहां नवरात्रा के साथ ही देवी रेणुका की पूजा की जाती है। देवी रेणुका जामदग्‍न्‍य परशुराम की माता है और किंवदन्ती के अनुसार भगवान् विष्णु की अंशीभूत मानी जाती हैं। 

महेंद्र पर्वत से लेकर इस इलाके तक परशुराम चरित्र के अनेक पड़ाव देखने को मिलते हैं।मंदिर अपने चारों तरफ घने पेड़ों से घिरा हुआ, और बड़ा ही रमणीक प्रतीत होता है और लगता कि प्रासादों के निवेश के लिए ग्रंथों में जिन स्‍थान-अर्हताओं काे बताया गया है, वे यहां पूरी तरह मिलती है। सचमुच यह देवधाम, देवस्‍थान लगता है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 287 सीढ़ियाें को चढ़ना पड़ता है। यह मार्ग भी सुरम्‍य, छायादार, सुगम्य, सुविधाजनक बनाया गया है। भव्य मंदिर में सर्वप्रथम भगवान परशुराम झूले में विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में माता रेणुका एक मुखाकृति अथवा मुखौटे के रूप में विराजमान हैं और पूजान्‍तर्गत है। देवी को विशेष तौर पर 'ताम्बूल' का भोग लगाया जाता है। यह संयोग ही है कि प्रतिमाशास्‍त्रों में अनेक देवियों को तांबूलप्रिया कहा गया है। उनके हाथों में भी तांबूल पात्र को एक आयुध के समान कहा गया है। यहां पहुंचकर शास्‍त्रों की मान्‍यताओं को जीवंत देखने का अवसर भी मिलता है।

मुख्य मंदिर के सम्मुख भी अनुसूया देवी का मंदिर है। मंदिर के पृष्ठ भाग से लगभग 50 सीढ़ियां नीचे उतरकर भगवान् पशुराम के मंदिर तथा मंदिर के पीछे सीढ़ीयुक्त प्राचीन बावड़ी बनी हई है। इस प्रदेश में सीढि़यों वाले जलस्रोतों के रूप में यह निर्मिति बहुत महत्‍वपूर्ण मानी जाती है। वापसी के लिए थोड़ा सा कच्चा मार्ग है जो पक्के रास्ते से मिल जाता है।

मंदिर से जुड़ा पौराणिक प्रसंग -
परशुराम आख्‍यान पौराणिक रूप में ख्‍यात रहा है। रेणुका भगवान परशुराम की माता थी। ऋषि जमदग्नि को परशुराम के पिता थे। ऋषि जमदग्नि शीघ्रकोपी स्वभाव के थे। माता रेणुका रोजाना ही पास की नदी से पानी लाने जाती थी। एक दिन उन्हें नदी किनारे कुछ गन्धर्व नृत्य करते हुए और गांधर्व गान करते दिखाई दिए। वे उन गन्धर्वों के नृत्य संगीत को देखने में इतनी मग्न हो गईं कि समय का ध्यान ही न रहा।  उन्हें लौटने में विलंब हो गया। इस कारण ऋषि जमदग्नि इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अपने पुत्रों को देवी रेणुका के वध की आज्ञा दे दी. किसी अन्य पुत्र में ऐसा करने का साहस नही हुआ, परन्तु पिता की आज्ञा मानकर परशुराम ने अपना परशु अपनी ही माता पर चला दिया। यह साहस अपूर्व और अप्रत्‍याशित था। हालांकि परशुराम बहुत परेशान हो गए किंतु जगदग्नि की क्रोधाग्नि शांत हो गई। ऋषि ने प्रसन्न होकर पुत्र से वरदान मांगने को कहा तो पशुराम ने अपनी माता को पुनजीर्वित करने का निवेद‍न किया।  जमदग्नि ने कहा- पुत्र तुम अपनी माता को पुकारते हुए आगे बढ़ो, वे स्वयं तुम्हारे पीछे आएंगी,  लेकिन तुम्हे पीछे पलटकर नही देखना होगा। पितृभक्‍त परशुराम ने वैसा ही किया। कुछ दूर चलने के बाद ही परशुराम ने पीछे मुड़कर देख लिया। उसी समय माता रेणुका मुखौटे में परिवर्तित हो गई। कहते हैं कि वही इस माहुर पर्वत पर विराजमान हैं।

विनायकों का वैभव -
माहुर से नागपुर के बीच विदर्भ के अष्टविनायकों में से केलझर नामक छोटे से गांव की पहाडी पर विराजे अष्टविनायक एवं नागपुर यवतमाल रोड पर कलंब नामक गांव की एक बावडी में स्थित चिंतामणि गणपति के दर्शन भी इस यात्रा की महत्‍वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। इस पूरे ही क्षेत्र में विघ्‍न विनायक का वैभव माना जाता है। मुद्गल पुराण और गणेशपुराण में इन गजानन की महिमा का गुणगान मिलता है, मगर आंखों से प्रत्‍यक्ष देखने का जाे लाभ यहां आकर मिलता है, वह दिव्‍य और दुर्लभ तो है ही, वर्णन के विषय से परे भी है।

सोमवार, 27 जुलाई 2015

सुप्रभात...

किरणों का साथ पाकर
जीना सीखती आशाएँ 
मानो उड़ना चाहती हैं
क्षितिज के भी उस पार
अजब सुर्ख एहसास से 
जाग उठी सुबह के साथ..... 

बुधवार, 13 मई 2015

जीवन पथ ...

हर सुबह के इंतज़ार में 
अंधियारे से लड़ना है
हर पल घटती सांसें हैं
पल को जीभर जीना है
हर रिश्ते हर नाते को
राख यही हो जाना है
झूठे जग का मोह त्याग
उस पार अकेले जाना है ....
----------------------------------
भीड़ चहूँ ओर है
हर तरफ शोर है
रिश्तों के मेले हैं
अपनो के रेले हैं
दुनिया के खेले हैं
फिर भी अकेले हैं... 




मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

जीवन राग....

उर की अनंत गहराइयों में 
बिन खाद पानी के जन्मे 
बीज होते है स्वप्न
जब बीज है तो पनपेगा
फूलेगा फलेगा 
और आकार लेगा 
विशाल वृक्ष का
जब वृक्ष होगा 
तो घोंसले भी होंगे
जब घोंसले होंगे
चहकेंगें फुदकेंगे पंछी
होगा कलरव गान 
स्वप्न तो स्वप्न होते हैं
परिश्रम और कर्म से सींच
लहलहाना होगा इन्हें 
यदि यथार्थ में सुनना है 
इन पंछियों का खुशियों भरा 
लुभावना जीवन राग...

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

आशा पल्लव...

याद है तुम्हें ...?
उस नन्हे पौधे को रोपत़े हुए
कितने विश्वास से कहा तुमने 
जब यह दरख्त बन जाएगा 
एैसे फूल खिलेंगे  
जिससे सुवासित हो जाएँगे 
हमारे मन और आत्मा 
उस दिन हम यहीं मिलेंगे
गूँथ दूँगा मैं फूलों को
तुम्हारे जूड़े में 
सुगंध से तृप्त हो जाएगी
सदियों से अतृप्त
दोनो की आत्मा
बाँध देगी हमे  
प्रेम की मज़बूत डोर से 
जिसे थामकर पहुँचना है 
हमे संग-संग चलकर
जीवन के उस छोर तक
जिसके आगे कुछ भी नही 
ख़त्म होगी जहाँ हर सीमा 
उस अंतहीन अनंत की ओर
जहाँ विखंडित हो जाते है अणु
अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश में 
पा लेते हैं अपना मूल स्वरूप 
जहाँ असंभव है हर भेद-विभेद
लो मैं तो आ पहुँची हूँ वहीं 
प्रतीक्षा है उस क्षण की
जब तुम आकर पूर्ण कर दोगे 
यह जीवन यात्रा गाथा .....

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

नव संवत्सर- गुड़ी पाड़वा

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को 'गुड़ी पाड़वा'  या नववर्ष का आरम्भ माना गया है। ‘गुड़ी’ का अर्थ होता है विजय पताका । इसे हिन्दू नव संवत्सर या नव संवत् भी कहते हैं। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की संरचना शुरू की। उन्होंने इसे प्रतिपदा तिथि को प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। पूरे भारत में इसी दिन से चैत्र नवरात्र की शुरूआत होती है।


कहा जाता है कि शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। एक अन्य मान्यता है कि इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई। बाली के आतंक से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए। आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को 'गुड़ी पाड़वा' नाम दिया गया।

महाराष्ट्र में यह पर्व 'गुड़ी पाड़वा' के रूप में मनाया जाता है। घरों को  स्वच्छ करके आम  की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुबह-सुबह गुड़ी या गुढ़ी में एक लम्बे बांस को रेशमी वस्त्र से सजा कर , उसके सिरे पर चांदी या पीतल का छोटा गिलास या लोटा बांधा जाता है और फिर उसे पुष्पहार, गाठी(शक्कर की मीठी माला) व नीमपत्र  से विभूषित कर उसकी पूजा करके घर में बनाये गए पकवान नैवैद्य स्वरुप अर्पित किये जाते हैं, ऐसा करने के पीछे इस पुण्य अवसर पर प्रतीक स्वरूप देवालय की प्रतिष्ठा करने का ही भाव प्रकट होता है।  रेशमी वस्त्र पताका का प्रतीक भी है। दण्ड और उसके शिखर में मंदिर की उच्चता और गुरुता का भाव है। बांस के शिखर पर बंधा लोटा मंदिर के कलश का प्रतीक है। खुले आँगन या ऊंचाई पर इसे बांधने के पृष्ठ में सर्वकल्याण और सूर्योपासना का भाव प्रतीत होता है। शाम को सूर्योदय होने से पहले गुड़ी को उतार लिए जाने की प्रथा है। महाराष्ट्र में इस दिन खास तौर पर श्रीखण्ड व पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। 

यदि हम प्राकृतिक सौंदर्य पर नज़र डालें तो चैत्र वैशाख यानी वसंत ऋतु में जंगली वृक्षों पलाश, सेमल, गुलमोहर आदि में नई कोंपले फूटती दिखाई हैं।  इन वृक्षों की डालियाँ फूलों से इस तरह लदी होती हैं, जैसे किसीके स्वागत में भव्य तोरण - द्वार सजे हैं. जबकि कोई भी इनकी देखरेख नही करता। इनका विकास प्रकृति की जिम्मेदारी होती है। इसलिए वसंत ऋतु को पहली ऋतु और कुदरत के सृजन का प्रतीक माना जाता है, तथा इस  वसंत का शुभारम्भ माना जाता है 'गुड़ी पाड़वासे।


भारत भर के सभी प्रान्तों में यह नव-वर्ष विभिन्न नामों से मनाया जाता है. ये विविध पर्व एवं विभिन्न त्योहार हमारे जीवन में सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक सभी दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं.  हमारे त्यौहार हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाते है, तथा परिवार व समाज को आपस में जोड़े रखने व जीवन में नवउत्साह भरने का अनुपम कार्य करते हैं.  

आप सभी को हिन्दू नव वर्ष की अशेष शुभकामनाएँ। ईश्वर से कामना है यह वर्ष हम भारतीयों के लिये ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये भी सुख, शांति का सन्देश लेकर आए एवं सभी के लिए मंगलमय हो।

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

मन, शहरी नही हुआ ...

...
रोटी, मन, गाँव, शहर
सब्जी तरकारी में
फूलों की क्यारी में
रोटी के स्वाद में 
पापड़ अचार में 
मेवों पकवानों में
ऊँचे मकानों में 
बूढे से बरगद में
शहरों की सरहद में 
तीज त्योहार में 
मान मनुहार में
लोक व्यवहार में 
नवीन परिधान में 
बेगानो की भीड़ में 
संकरी गलियों में 
मौन परछाइयों में 
कांक्रीट की ज़मीन में 
धुँआ-धुँआ आसमां में 
अब भी गाँव ढूँढता है 
मन, शहरी नही हुआ ....

बुधवार, 4 मार्च 2015

होली के रंग...


होली के रंग
पुलकित है मन
पिया के संग


प्रीत फ़ुहार
पिचकारी की धार
टेसू  के संग

मन मलंग
बिन पिए ही भंग
बना पतंग

मस्ती- उमंग
रिश्तो में घुले रंग
भीगा फ़ागुन

बिखरे रंग
खिल उठा मन में
इंद्रधनुष

नीर अमिय
सहेजो बूँद-बूँद
भरो सागर

रंग गई मैं
पहन चुनरिया
उनके रंग

आप सभी को सपरिवार रंगोत्सव होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ... 



रविवार, 22 फ़रवरी 2015

अपनो छोटो सो घरगूला.....

हिराने अंगना 
बिसरे चूल्हा
कहाँ डरे अब
बरा पे झूला
भूले चकिया
सूपा, फुकनी
नहीं दिखे ढिग
छुई की चिकनी
ओझल भये
गेरू के फूल
गाँव गलिन की 
गुईयाँ संगे 
सजा लओ 
सबने अपनों 
छोटो सो घरगूला.....

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

कहाँ गए तुम्हारे सामुद्रिक संस्कार???

.....
हे उद्दात लहरों ...
कौन भड़काता है तुम्हे
कौन सिखाता है तुम्हे
क्यों ठेस पहुंचाती हो
क्यों ख़ुदको छलती हो
क्या यही सभ्यता है
क्या यही परंपरा है
कहाँ गए तुम्हारे मर्यादित
सामुद्रिक संस्कार???
यह कैसा अधिकार
क्यों न तुम्हें बांध दिया जाए
बंधनों की बेड़ी से 
वह भी बिल्कुल अकेले
फिर खूब चीख़ना - चिल्लाना
सवाल करना ख़ुद से
और जवाब भी देना
देखना निरूत्तर हो जाओगी
क्योंकि मर्यादाओं को तोड़ना
बंधनों को तोड़ने से कहीं अधिक
मुश्किल और कठिन है...

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

आंखर चाय...


शब्दों की भीनी मिठास
भावों की महक को
जब शृंगार के जल में
व्याकरणी दूध खौलाकर
डबकाते होगें कुछ देर
तो कविता सी 
बनती होगी चाय उनकी
ताज़गी से भरपूर  
दार्जलिंगी गमक लिए
महकते शब्दों को 
जायकेदार ख़ुश्बू संग
खूब खौलाते हैं 
बड़ी शिद्दत से वो 
जैसे चाय नही पक रही 
कोई कविता उबल रही हो
उबलेगी, खौलेगी, छनेगी 
फ़िर प्रस्तुत की जाएगी 
प्यालियों रकाबियों में \
किताबों की तरह
व्यवस्था परिवर्तन के लिए
क्रांति का उद्घोष करती...