मंगलवार, 27 जनवरी 2015

पुरानी ज़िद...


अक्षर अक्षर 
शब्द मेरे  
जानती नहीं 
कब हो गए 
भाव तुम्हारे  
इस सफ़र का
पता ही न चला 
करने लगे हो 
मेरे ही मन में 
खूब मनमानी 
और देखो न 
इठलाती इतराती
अल्‍हड़ बच्ची सी
मैं आज भी 
लगी रहती हूँ 
तुमसे अपनी 
हर बात मनवाने की 
उसी पुरानी ज़िद में
नई नई ज़िद लेकर....

9 टिप्‍पणियां:

  1. प्रीत पुरानी ही होती है...

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1873 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. मन बच्चा ही रहे जब तक अच्छा है ... चाहे प्रीत मे ही सही ...

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  4. और वही जिद जिलाये भी रखता है . बहुत सुन्दर रचना..

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  5. बहुत प्यारे और कोमल अहसास...बहुत सुन्दर रचना..

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