शनिवार, 31 दिसंबर 2016

आकांक्षा...संध्या शर्मा

आने वाला वर्ष सभी के लिए मंगलमय हो इसी कामना के साथ आप सभी को सहपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ...

ओ अम्बर!
मैंने कभी नहीं  चाहा 
तुम्हारी ऊंचाईयों को छूना 
हमेशा डूबना चाहा 
तुम्हारे विस्तार में
बस इतनी चाहत है 
जड़े रहें चांद-सितारे
दामन में तुम्हारे 
सागर भी आकर 
चरण तुम्हारे पखारे 
और मैं 
पलकें बंद करके 
डूबी रहूँ
प्रीत की गहराईयों में ....

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

आखिर कब सुरक्षित होगी नारी इस समाज में?

वेदों ने कहा है  'यत्र नारी पूज्यते रम्यते तत्र देवता। नारी को देवी का सर्वोच्च स्थान देने के बाद भी यहाँ नारी सदियों से प्रताडि़त ही रही। भारतीय धार्मिक इतिहास का अवलोकन करने पर शक्ति पूजा का उद्भव नारी से माना गया है और नारी को शक्तिस्वरूपा कहा गया है। हमारी संस्कृति में ही ईश्वर को मां के रूप में पूजे जाने की परंपरा है, लेकिन नारी को शक्ति के रूप में पूजने वाले इसी भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही नारी की दशा सोचनीय रही है। कहने के लिए तो नारी जीवन रूपी गाड़ी का दूसरा पहिया है, जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, लेकिन वही नारी सदियों से तरह-तरह के अत्याचारों का शिकार होती रही है। जो समाज देवताओं की पत्नियों की शक्ति के रूप में पूजा करता है, वही समाज अपने घर पर पत्नी, बहन, बेटी और बहू पर अत्याचार करने में जरा भी संकोच नही करता। 

इसके दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण और क्या हो सकते हैं कि सरे आम राह चलती महिला ही बलात्कार का शिकार हो जाती है। दुधमुंही बच्चियां तक सुरक्षित नही हैं। माना कि प्रकृति ने भी शारीरिक रूप से नारी पुरुष की अपेक्षा कमजोर बनाया है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि नारी की इस कमजोरी का लाभ उठाकर उसका अपमान किया जाए। आज कन्या भ्रूण हत्या को रोकने की मुहीम चलाई गई है। घरेलू हिंसा को लेकर सजा निश्चित है। लेकिन आए दिन जो महिलाओं को उठाकर उनसे बलात्कार हो रहे हैं, उनकी निर्मम हत्या हो रही है। इन घटनाओं के बाद महिला आयोग एक चिट्ठी लिख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है।

घर पर ही क्यों आज तो राह चलती कोई भी स्त्री सुरक्षित नही है। पिछले दिनों दिल्ली की सड़क पर कैंची के 25-30 घाव देकर सरेआम एक स्त्री की जान ले ली एक सरफिरे ने। उसपर दुःख इस बात का है, कि लोग एक स्त्री को जान से मारने का तमाशा देखते हुए, उसकी बिना सहायता किए आगे बढ़ लेते हैं। क्या सारी भीड़ मिलकर एक हमलावर को रोकने का सामर्थ्य नही रखती? कितना असंवेदनशील होता जा रहा है, हमारा समाज। कल उस स्त्री के स्थान पर किसी की भी बहन, माँ, बेटी हो सकती है। क्या तब भी तमाशबीन ही बने रहेंगे लोग? 

प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाओं के प्रति इस तरह के बढ़ते हुए अपराधों को रोक जा सकता है? बिलकुल... यदि समाज नारी के प्रति अपने नजरिए को बदल दे तो यह भी हो सकता है, और शुरुआत परिवारिक स्तर पर की जानी चाहिए। परिवार के हर बेटे को बेटी की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपकर उन्हें माँ, बहन, बेटी का सम्मान करना सिखाया जाए तो वह बाहर जाकर हर स्त्री का सम्मान करेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके संस्कारों में शामिल हो जाएगा। 

महिलाओं को कानूनी सुरक्षा और उनके प्रति अपराध करने वाले अपराधियों को कडे़ से कड़ा और शीघ्र दंड मिले, ऐसे परिवार का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए। तब शायद महिलाओं की इस समस्या का निवारण सम्भव होगा। 

युग बदला, सब बदला, लेकिन नारी के प्रति जो सदियों पूर्व बर्बर युग की सोच थी, आज भी वही है। ये समाज नही बदला, और न जाने कब बदलेगा?

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

तान्हा पोळा एवं मारबत - बड़ग्या उत्सव

भारतीय जनमानस में लोकपर्वों का अत्यधिक महत्व है, उत्सवधर्मी समाज इन पर्वों को बड़ी धूमधाम से मनाता है। ग्रामीण भारत के अधिकांशत: त्यौहार कृषि पर आधारित होते हैं,  ऐसा ही एक त्यौहार महाराष्ट्र के विदर्भ में पोला मनाया जाता है।  जो कृषि कार्य में संलग्न पशुधन के प्रति श्रद्धा एवं आभार व्यक्त करने का पर्व है। अमावस्या को बड़ा पोला मना कर उसके दूसरे दिन पड़वा को बच्चों के आनंद व उन्हें अपनी माटी से जोड़ने हेतु भोसला शासन काल में तान्हा पोला की शुरुआत हुई।  

इस दिन छोटे बच्चे लकड़ी से बने सुंदर सुन्दर बैलों को सजाकर शाम को हनुमान मंदिर के पास सुंदर वेशभूषा में सज संवर के एकत्रित होते हैं।  आम की पत्तियों और फूलों से बने तोरण को तोड़कर पोळा फूटता है।  इसके बाद हर घर के द्वार पर पुत्र की माता या दादी के द्वारा बैल की पूजा तथा बालक का तिलक करके स्वागत किया जाता है व उपहार स्वरुप मिठाई, चॉकलेट बिस्किट या पैसे दिए जाने की परंपरा है जिसे " बोजारा" कहते हैं. इसके साथ ही भीगी हुई चने की दाल व ककड़ी का प्रसाद बांटा जाता है। 
अनेक स्थानों पर लकड़ी के बैलों की सजावट स्पर्धा, वेशभूषा स्पर्धा का आयोजन किया जाता है, विजेता को पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इस दिन बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है, बड़ों को भी आपसी मेल - मिलाप का अवसर मिल जाता है। 

इसी दिन अनिष्ट के निवारण व बुराई के विरोध में मारवत उत्सव भी  मनाया जा रहा है, एक सौ सैंतीस वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए इस उत्सव को मनाने की परम्परा आज भी क़ायम है। सम्पूर्ण विदर्भवासियों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।  इसमें काली मारबत, पीली मारबत व आतंकवाद, देशद्रोह, भ्रष्टाचार व सामाजिक व राष्ट्रीय मुद्दों के तहत प्रतीकात्मक बड़ग्या के पुतले बनाए जाते हैं। जुलुस के साथ इन्हें शहर में घुमाया जाता है, व इन सभी बुराईयों को "घ्यून जा गे  ... मारबत (साथ ले जा मारबत) के नारों द्वारा मारबत से साथ अपने ले जाने की प्रार्थना की जाती है।  संदल, ढोल - नगाड़े और अबीर-गुलाल खेलते हुए अंत में नाईक तालाब में विसर्जन कर दिया जाता है। 

लोक पर्व हमारे मानस में इतने रचे बसे हैं कि आधुनिकता की आँधी इन्हें उड़ाकर नहीं ले जा सकी, भले ही रुप बदल गया हो पर लोक पर्व वर्तमान में भी कायम हैं। यही हमारी संस्कृति है जो गाँवों का शहरीकरण होने के बाद भी जीवित है और प्रकृति के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए पशुओं एवं अन्य प्राणियों का सम्मान करना सिखाती है।

रविवार, 14 अगस्त 2016

आज़ादी....!



एक बात कहूँ..?
खरीदोगे तो
अपमान करोगे
सड़कों पर फेंकोगे
न खरीदोगे तो
नन्हे मज़दूरों का
साल भर का 
इन्तज़ार व्यर्थ
चलो मान लिया
तुम मना लोगे 
इनके बनाए हुए
झंडे बिना आज़ादी
क्या है कोई हल...?
जो पूरा कर दे इनके
छोटे - छोटे सपने
जो दिला सके इन्हें
भूख और गरीबी से
आज़ादी....!

बुधवार, 10 अगस्त 2016

रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात …… संध्या शर्मा

नौतपा की झुलसाने वाली गर्मी के बाद जब वर्षा की पहली फ़ुहार भूमि पर पड़ती है तो झींगुर का मन नाच उठता है, दादुरों को पुन: जीवन मिल जाता है और वे कूद-कूद कर बारिश के जल वाले स्‍थान की खोज में निकल पड़ते हैं। धरती में सोए बीज अंगड़ाई लेने लगते हैं। चातक पंख फ़ड़फ़ड़ाने लगता है। मोर नाचने लगते हैं, गाय-गोरु, कीट-पतंगे भी हरियाने लगते हैं, सारी प्रकृति ही वर्षा के स्वागत में लग जाती है । कुछ दिनों में धरती हरियाली की चादर ओढ लेती है तो लगता है कि किसी ने सूखकर कांटा हो चुकी वसुधा पर अमृत की बूंदे छिड़क दी हो। 

यह मौसम हर किसी को झूमने पर मजबूर कर देता है। चारों ओर हरियाली, ठंडी-ठंडी पवन की मदमस्त बयार, बारिश की रिमझिम और सखियों का साथ। वर्षा का मौसम मेलों की परंपराओं को भी हरिया जाता है। वनखंड में सखियों के स्‍वर गूंजते हैं। भोजपुरी गीतों में वनों की रौनक का वर्णन मिलता है : 
कवना बने रहलू ए कोइलरी, कवना बने जासु। 
केकरा दुअरवा ए कोइलरि उछहल जासु।
नंदबने रहलू एक कोइलरि बृंदाबन जासु।

जब किसान कांधे पर हल लेकर निकलता है, तो वह शुभ दिन होता है, क्योंकि यही वह समय होता है जब मनुष्य के भविष्य के लिए अनाज उपजाने का कार्य करता है। धरती आर्द्र और आर्द्रा ही बुवाई का नक्षत्र, भोजपुरी किसानों को यह सब याद है : 

खेतवा जा ला रे किसनवा/हरवा जोते ला किसनवा 
नाचब गाईब पहिरब कंगनवा हो 
हंसिया लईके काटब धनवा 
लेकिन रहब तोहरे संगवा
ठीक दोपहरिया में लइबे जलपानवा 
खेतवा जा ला रे किसनवा...... 

आदरा धान पुनरबस पैया। 
गेल किसान जे बोये चिरैया। 
यह मौसम प्रियागमन का भी है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि प्रिय के आने का समाचार मिला होता तो मैं बासमती चावल छंटवाकर रखती : 
जउ हम जनती पिया की अवइया। 
वासमती चउरा छंटाइ रखती। 

इस काल में देहात में जुताई-बुवाई की रंगत चलते ही 'समहुत' का वातावरण बन जाता है, घर-घर विशेष भोजन तैयार होते हैं। किसानों के लिए हल और बैल दोनों ही देव तुल्‍य होते हैं और बुवाई के साथ्‍ा ही कामनाओं के ज्‍वार उठने लगते हैं कि चारों कोने हरियाली से पूर्ण हों और सुहासित, सुवासित लगे : 
हरियर हरियर चारो कोनवा सहादेव।

वर्षा से पृथ्वी को जो जल मिलता है तो उससे समस्त जीव जंतुओं का निस्तार होता है और ग्रीष्म काल की गर्मी से छुटकारा प्राप्त होता है। खेतों में फसल बोई जाते हैं। पेड़-पौधों के उगने के लिए यह ऋतु सबसे श्रेष्ठ है । खेतों में काम करते हुए हलियारों के गीत कानों में गूंजने लगते हैं, ढेले फ़ोड़ती महिलाओं के सुमधुर कंठ का गान खेतों में महकाने लगता है - झूल तो पड़ गयो अमवा की डार मा, 
मोर-पपीहा बोले !" 

ऐसे कुछ बुंदेली गीत हैं, जो वर्षा के आते ही गली-कूचों और आम के बगीचों में गूंजने लगते हैं। मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूलों का लुत्फ उठाती हैं। सावन को वर्षा ॠतु का महत्वपूर्ण महीना माना जाता है, इसे तीज-त्यौहारों का महीना भी कहा जाता है, विशेषकर भोले बाबा की उपासना का माह भी होता है। 

नव विवाहितों के मायके आते ही झूले डाले जाते हैं, वैसे तो वर्तमान से सभी के घरों में बारहमासी झूला स्थापित होता है, किन्तु सावन में उपवन में लगे झूले के प्रति मन में विशेष उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है। वास्तव में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग है जो सावन के मनोरम मौसम के कारण प्रदूषण मुक्त शुध्द वायु देता है।

बरसात होने से हवा में उड़ने वाले धूल, धुंए के कण, पानी में घुलनशील सभी हानिकारक गैसें भी वर्षा के जल के साथ-साथ धरती पर गिरकर भूमि में समा जाती हैं और शुध्द हवा स्वास्थ्य के लिए उत्तम होती है। सावन में चहुं ओर हरियाली छाई होती है। कहा गया है कि हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूला झूलते समय नेत्र कभी खुलते और कभी बंद होते रहते हैं। इस सह उपक्रम के कारण सावन में झूले के माध्यम से नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम हो जाता है। जो नेत्रों के लिए अत्यंत हितकारी है। झूला झूलने से हमारे मन मस्तिष्क में हर्ष और उल्लास की वृध्दि होती है। इसके कारण ग्रीवा की नसों में पैदा होने वाला तनाव कम होता है जिससे स्मरण शक्ति तीव्र होती है। झूला झूलते समय श्वांस-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है।

वर्षा ऋतु में कवि मन बहुत प्रसन्न हो जाता है व वर्षा की धाराओं के साथ झूमने लगता है, रंग बिरंगे फूलों के साथ खिल उठता है, तितलियों से संग उड़ता है, भौरों के साथ गुनगुनाता हुआ प्रकृति के साथ हरियाला हो जाता है। और कह उठता है- 
"शोख़ हवाएं आज ज़रा - ज़रा नम हैं, काली घटा, बिजली बूंदों का संग है...।"

भगवान कृष्ण और राधा की रासभूमि पर सावन की बहार में स्वयं भगवान भी झूलने का मोह संवरण नहीं कर पाते। सावन के दिनों में ब्रज में रिमझिम-रिमझिम बरसात में भगवान राधा-कृष्ण को भी झूलों पर झुलाया जाता है। राधा कृष्ण के साथ हर मन बावरा होकर अपने प्रिय को पुकारते हुए गा उठता है- सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ, तुम चले आओ.....।

शनिवार, 16 जुलाई 2016

बुंदेली लोकगीतों में जल का महत्व... संध्या शर्मा

पृथ्वी का अमृत जल को कहा गया है, अगर जल न हो तो यह वसुंधरा जल जाए। प्राणियों का अस्तित्व ही मिट जाए, इसलिए हमारे पूर्वजों ने जल का हमेशा सत्कार किया, उसकी महत्त्ता एवं उपयोगिता को समझ कर आने वाली पीढीयों को सचेत किया। है। जितने नाम जल के हैं, उससे अधिक उसका उपयोग है। आज बुंदेलखंड क्षेत्र जहाँ जल की कमी से जूझ रहा है वहीं प्राचीन काल में जल महत्व समझकर उसका गुणगाण किया जाता था और लोकगीतों के माध्यम से जन जागृति करने का कार्य भी किया है।  

मध्यप्रदेश की हृदयस्थली बुन्देलखण्ड को चेदि तथा दशार्ण भी कहा जाता है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में “चेद्य नैषधयोः पूर्वे विन्ध्यक्षेत्राच्य पश्चिमे रेवाय मुनयोर्मध्मे युद्ध देश इतीर्यते।” यह श्लोक वर्णित है। दशार्ण अर्थात दश जल वाला या दश दुर्ग भूमि वाला द्धण शब्द दुर्ग भूमौजले च इति यादवः जिस प्रकार पंजाब का नाम पांच नदियों के कारण पड़ा मालूम होता है, उसी प्रकार बुन्देलखण्ड का दशार्ण नाम – धसान, पार्वती, सिन्ध (काली) बेतवा, चम्बल, यमुना, नर्मदा, केन, टौंस और जामनेर इन दस नदियों के कारण संभव हुआ है।


बुन्देली धरा को प्रकृति ने उदारतापूर्वक अनोखी छटा प्रदान की है। यहाँ पग-पग पर कहीं सुन्दर सघन वन और कहीं शस्यश्यामला भूमि दृष्टिगोचर होती है। विन्ध्य की पर्वत श्रेणियाँ यत्र-तत्र अपना सिर ऊँचा किए खड़ी हैं। यमुना, बेतवा, धमान ,केन, नर्मदा आदि कल-कल नादिनी सरितायें उसके भू-भाग को सदा सींचती रहती हैं। शीतल जल से भरे हुए अनेकों सरोवर प्रकृति के सौन्दर्य को सहस्त्रगुणा बढ़ाते हैं। अर्थात यहाँ प्रकृति अपने सहज सुन्दर रूप में अवतरित हुई है। यहाँ की सरिताएं विन्ध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत श्रेणियों में जन्मी हैं। कभी चट्टानों में अठखेलियाँ करतीं, कभी घने वनों में आच्छादित इलाकों में विचरण करती हैं और कभी मैदानी भागों से बहती ये नदियाँ आगे बढ़ती हैं।

जल में प्राणदायिनी शक्ति छिपी है, मानव शरीर पाँच तत्वों से मेल से बना है, जिसमे जल का महत्वपूर्ण स्थान है। ताजा जल हमें केवल एक ही स्रोत से मिलता है, वह है वर्षा। झीलें, हिमनद, नदियां, चश्में, कुएँ जल के गौण साधन हैं, और इन्हें भी वर्षा या बर्फ से जल मिलता है। इन साधनों के माध्यम से वर्षा का पानी इकट्ठा हो जाता है। जब वर्षा होती है, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे अमृत बरस रहा हो और ताप से व्याकुल वसुंधरा हरियाली चूनर ओढ़कर नवयौवना जैसी सज संवर जाती है।

जल को अमृत माना जाता हैl मनुष्य की दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु जल की खपत होती है। अर्थात जल ही जीवन है। हमारे लोक कवियों ने अपने गीतों में जल के महत्व को स्वीकारा है। यहाँ के गीतों, गाथाओं, लोकोक्तियों, मुहावरों, कथा-कहानियों में जल के महत्व का वर्णन मिलता है। अगर हम जल के महत्व को जान लें तो जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता को सुलझाने में हम अपना योगदान दे सकेंगे। हमारा कल्याणमय भविष्य इस बात पर टिका है, कि हम उपलब्ध जल के उपयोग में कितने सफल हो सकते हैं- वर्षा ऋतु हमारी नियति का महानाट्य है जिसके अभिनेता होते हैं ‘मेघ’ तभी तो हमारे लोक में मेघों का आवाहन होता है, हमारे देश में मेघोत्सवों, आल्हा, कजरी का आयोजन होता है। 

बुन्देली लोकगीत भी इसमें पीछे नहीं हैं तभी तो वे कहते हैं कि-

रूमक-झुमक चले अईयो रे
साहुन के बदला रे
फाग गीतों में कहा गया है कि -
गह तन गगर कपत तन थर-थर
डरत धरत घट सर पर।
गगरी के लेते ही वह थर-थर काँपती है तथा सिर पर घड़ा रखते हुए डरती है। वह डर को छोड़ती ही नहीं है- क्योंकि पानी भरने में एक पहर का समय लगता है।

कई लोकगीतों में जल के महत्व को इतने सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है, जो अवर्णनीय हैं।
जैसे-
न मारो कांकरिया लाग जेहे
कांकरिया के मारे हमारी गगरिया फूट जेहे
गगरिया के फूटे हमारी चुनरिया भीग जेहे
चुनरिया के भीगे हमारी सासुइया रूठ जेहे
सासुइया के रूठे हमारे बालमवा रूस जेंहे
बलमवा के रूसे हमारो पिहरवा छूट जेहे
इस लोकगीत में जल से भरी गगरिया के फूटने पर प्रिय के रुठने को बड़े ही सहज व शालीन ढंग से दर्शाया गया है। 

तो एक अन्य लोकगीत में माता सीता के जल भरने कुएं पर जाने का वर्णन कुछ इस तरह किया है-
जल भरन जानकी आई हो मोरी केवल माँ
कौन की बहुआ कौन की बिटिया
कौन की नार कहाई हो
मोरी केवल माँ
दशरथ बहुआ, जनक की बिटिया, 
राम की नार कहाई हो मोरी केवल माँ

तो कहीं माँ नर्मदा की तुलना माता-पिता से करते हुए बुंदेलखंडी बम्भोली सुनना अत्यंत कर्णप्रिय लगता है-
नरबदा मैय्या होssss
नरबदा मैया ऐसी मिली रे
ऐसी मिली रे जैसे मिल गए
महतारी और बाप रेssss
नरबदा मैया होssss

एक अन्य प्रसिद्ध परम्परागत बुन्देली विदाई गीत में माता-पिता के दुःख की उपमा सागर और गंगा जल से कुछ इस तरह दी गई है, कि किसी का भी हृदय भावुकता से भरे बिना नही रह पता और आँखें नम होकर बेटी के सुख, सौभाग्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगती हैं -
कच्ची ईंट बाबुल द्वारे न रखियो
बेटी न दइयो परदेस मोरे लाल
कौना के रोए गंगा बहत है
कौना के रोए सागर ताल मोरे लाल
अम्मा के रोए गंगा बहत है
बाबुल के रोए सागर ताल मोरे लाल


अत: जल हमारी अमूल्य धरोहर है। जल के बिना जीवन असम्भव है जल के कारण ही हमारा व प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व है जल का संरक्षण हमारा कर्तव्य है और हमें अपने प्रयासों द्वारा अगली पीढी के लिए जल को बचाए रखना है। जल का सही उपयोग करें तथा दुरुपयोग होने से बचाएं। यह जान लेना चाहिए कि जल संरक्षित रहेगा तो धरती पर जीवन रहेगा।

रविवार, 3 जुलाई 2016

युगों के पार...



सच-सच कहना Displaying 20160319_140051.jpg
मेरा-तुम्हारा
कब का रिश्ता है ?
क्यों लगती हो मुझे
इतनी अपनी सी ?
क्यों बुलाती हो मुझे
इतने प्यार से ?
तुम्हारा स्नेहिल 
मौन आमंत्रण 
अनायास ही 
ले जाता हैं मुझे 
युगों के पार 
विकल है मन 
मेरे अंतर में 
जागती कविता
ह्रदय गीतमय 
स्पंदित गुंजित 
धारा बन बहता 
यूँ मिलती हो
जैसे तुम मेरी 
बिछ्ड़ी सखियाँ 
ओ शुक सारिका
कहो आंजना
हे शाल भंजिका
प्यारी रमणिका
मुग्ध करती मुग्धा 
कहो न अभिसारिका....?

मंगलवार, 28 जून 2016

शब्द - शब्द अर्थ...

तुम्हारे पास
अर्थ हैं जितने 
मेरे पास
शब्द न उतने
बड़े मीठे है
तुम्हारे...
गीत अनसुने
बहुत सच्ची है
तुम्हारी...
कहानी अनसुनी
हर बात कहती हैं
मुझसे...
ये आँखें अनकही
अहसास झरने सा 
तुम्हारी...
पावन हँसी
संवार दो अलक
हौले से...
मेरे माथे पर पड़ी
ठीक से आती नहीं
मुझ तक...
तुम्हारे चेहरे की चाँदनी

शनिवार, 4 जून 2016

पातालेश्‍वर की लेणी या पातालेश्वर मंदिर, पुणे

महाराष्‍ट्र को गुफाओं के क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है जहां हीनयान के काल से ही अनेक गुफाओं का निर्माण हुआ और स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के ऐसे विधान और प्रतिमान खड़े किए जिनका आज तक कोई मुकाबला नहीं। यहां लगभग 200 ईसापूर्व में शिल्पियों ने पहाड़ों को ही प्रासादों के रूप में ढालने का प्रयास किया। हालांकि प्रथमतय यहां बौद्धों के लिए चैत्‍य और विहार बने और इस कार्य में स्‍थानीय शासकों ही नहीं, यवनों ने भी पर्याप्‍त सहयाेग किया।


बाद में यहां शैव प्रभाव आया तो गुफाओं के रूप में शिवायतनों का विकास हुआ। अलोरा-कैलास ही इसका उदाहरण नहीं है, पातालेश्‍वर की लेणी या पातालेश्वर मंदिर, जो कि राष्ट्रकूट वंश काल में गुफाएं काट कर बनाया गया था अपनी विशिष्‍ट स्‍थापत्‍य शैली के लिए ख्‍यातिलब्‍ध है। इनका शासनकाल लगभग छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य था। 

महाराष्‍ट्र के प्रसिद्ध पुणे शहर की घनी बस्ती के बीच जंगली महाराज रोड पर यह गुफा प्रासाद है। हरे-भरे बगीचे के मुख्य द्वार पर जंगली महाराज का मंदिर है। वहाँ से अंदर जाने पर नीचे की और जाती सीढ़ियों से पातालेश्‍वर मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। संभवत: इसीलिये इसका नाम पातालेश्वर पड़ा है। कहा तो यह जाता है कि इसका निर्माण पांडवों ने किया, मगर इतिहासकारों का मत है क‍ि 8वीं शताब्‍दी के आसपास इस क्षेत्र में शिवालयों का निर्माण भी पहाड़ों को काटकर विशिष्‍ट रूप में किया जाने लगा। तभी यह कहावत सी चल पड़ी कि शिव पर्वतों में भी आत्‍मवत् निवास करते हैं और शिखर पर शक्ति रहती है। यहां शैव सन्‍यासियों और शिवोपासकों ने विहार के योग्‍य गुफाओं के परंपरित स्‍थापत्‍य को अपने लिए स्‍वीकार किया।

पातालेश्‍वर शिवायतन का निर्माण एक विशालकाय पहाड़ को काटकर किया गया है। यह कार्य इतना महत्‍वपूर्ण हुआ है कि देखकर दांतों तले अंगुली दबा देनी पड़ती है। यहां वर्तमान में बौद्ध प्रभाव दिखाई नहीं देता किंतु इसमें दोराय नहीं कि यह स्‍थापत्‍य शैली और विधान बौद्धकाल से ही प्रेरित एवं प्रवर्तित रही है।

शैवशासन के बढ़ते प्रभाव के कारण सहयाद्रि आदि पर्वत मालाओं में शासकों, सामंतों और धनाढ़यों आदि ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और इसमें शिव के अनेक स्‍वरूपों की स्‍थापना की गई। पहाड़ों के पत्‍थरों को ही प्रासादों की भित्तियों के रूप में स्‍वीकार किया गया और उन पर अनेक प्रकार के मूर्ति शिल्‍पों के साथ ही प्रतीकात्‍मक रूपों को उकेरा गया है। इनमें यहां की तत्‍कालीन समाज-संस्‍कृति की छवि को देखा जा सकता है।

पातालेश्‍वर लेणी की पहचान नंदी के विशाल मंडप के लिए है। यहां नंदिकेश्‍वर की अन्‍य प्रतिमाएं भी हैं। यहीं पर जलापूर्ति के लिए विशालकाय कूप है जिसे स्‍थानीय तौर पर विहिर कहा जाता है, वैसे यह शब्‍द इधर बावडि़यों के लिए प्रचलित रहा है। वर्तमान में इस कूप को बंद कर दिया गया है। 


यहां के स्‍थापत्‍य की एक विशेषता शिव के जलाभिषेक प्रणाली है। यह खास जल की प्रणाली थी। अभिषेक के बाद यह जल नालियों के माध्‍यम से कूप तक पहुंचाया जाता था। जल प्रबंधन की यह प्रणाली यहां आज भी देखी जा सकती है। एक प्रकार से यह कूपों में जल के पुनर्चक्रण की प्राचीन विधि है। जल फालतू न बहे और पुन: भूमि में पहुंचकर शुद्ध हो और जनोपयोगी सिद्ध हो। इस मंदिर के बायीं ओर एक और गुफा है जिसमें एक छोर पर पानी के भंडारण की प्राचीन व्‍यवस्‍था भी दिखाई देती है। यह आजकल के बाथटब जैसी है किंतु इसका प्रयोजन देव-स्‍नान से जुड़ा रहा होगा। 

इसी कूप के छोर पर एक बड़ी व एक उससे छोटी दो शिला - खंड भी विद्यमान हैं, जिनमे पदचिन्ह अंकित हैं, किवदंती है कि, उस समय के राजा व युवराज इन शिलाओं पर खड़े होकर सूर्यदेव को प्रातःकाल अर्घ्य दिया करते थे, उस अर्घ्य का जल भी वापस इसी कूप में संचित होता था, यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे पूर्वज जल का महत्व समझते थे एवं प्रारम्भ से ही सुदृढ जल प्रबन्धन कर रहे थे।    
यहां आकर बहुत शांति का अनुभव होता है। प्रकृति अपने पूरे साैंदर्य के साथ यहां सम‍शीतोष्‍ण और षडऋतुमय बनी लगती है। शिव के धाम यूं भी पवित्रता के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य के सुखधाम होते हैं। 

बुधवार, 23 मार्च 2016

होली होली... संध्या शर्मा



आई फिर से रुत रंगीली

टेसू दहके, सरसों पीली


गाल-भाल पर रंग गुलाबी

खूब हो रही हंसी ठिठोली


गोरी सूरत हो या भोली

हो गई देखो लाल काली


इठलाती गोरी की चूनर

पल में होती रंग रंगीली


गलिन-गलिन घूमें टोली

हिलमिल सब खेलें होली


सखियाँ ढूँढ ढूँढ के हारी

राधा तो कान्हा की होली

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

परिचय से पहले बोलोगे...



दूर गगन में सुकुवा उगे
शीतल मंद पवन चले
परिन्दे निकले नीड़ों से
वन में सुंदर फ़ूल खिलें
भोर नवल सूरज ले आए
धरती पर प्रकाश फ़ैलाए
तुम भी उरबंधन खोलोगे
परिचय से पहले बोलोगे
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भोर भए बछिया रम्भाए
नीलगगन पंछी उड़ जाए
कुंए पर पनिहारिन आए 
जल की गगरी छलकाए
डग धरती डगमग डोले
रहट चले चरर चरर बोले
तुम कन्हैया तब हो लोगे
परिचय से पहले बोलोगे
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बीत गई अब सगरी रैना
न करार न मन को चैना
राधा बन बन फ़िरी बावरी
सांवरिया तुम खोलो नैना
अब के बसंत न बीत जाए
हरियाला मन सूख न जाए
कब नयनों के पट खोलोगे 
परिचय से पहले बोलोगे
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बागों के भौरों की गुंजन
फ़ैल रही खुश्बू बन बन
मधुबन में तो गुंज रहा है
पुष्पित स्वासों का स्पंदन
बसंतराजा सजकर आए
प्रकृति रोम रोम हरषाए
तुम कब गठरी खोलोगे
परिचय से पहले बोलोगे
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चाहे कोई संग न आए
मेरे शब्द भले न भाए
मन की सूनी क्यारी में
गीतों का तुम बिरवा बोए
दूर कहीं जब पंछी बोले
मधुर जीवन रस घोलोगे 
दूर खड़े पथ न देखोगे
परिचय से पहले बोलोगे
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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

इसलिए तो हम सब हैं...

सूरज
किरणें
चाँद 
चांदनी 
बादल 
बरखा
बसंत
बहार
फूल
खुशबु
रास्ते
मंज़िल
साँसे
धड़कन
प्रेम
विश्वास
दुनिया
खुशियाँ
सपने
अपने हैं
इसलिए तो हम सब हैं...

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

ब्रह्मांड दूरियों का….!

सरोकार छूट जाऐं

बंधन टूट जाऐं

रस्ते बदल जाते हैं

रिश्ते रूठ जाते हैं

जैसे......!

दो बिन्दुओं का योग

सरल रेखा बनता है

लेकिन एक ही बिंदु से

निकलकर भी

मुंह मोड़कर

एक दूजे से

दो दूर जाती हुई

सरल रेखाओं के बीच

विस्तृत होता जाता है

एक अनंत विस्तार

जो रच ही देता है

एक न एक दिन

ब्रह्मांड दूरियों का….!