शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

आखिर कब सुरक्षित होगी नारी इस समाज में?

वेदों ने कहा है  'यत्र नारी पूज्यते रम्यते तत्र देवता। नारी को देवी का सर्वोच्च स्थान देने के बाद भी यहाँ नारी सदियों से प्रताडि़त ही रही। भारतीय धार्मिक इतिहास का अवलोकन करने पर शक्ति पूजा का उद्भव नारी से माना गया है और नारी को शक्तिस्वरूपा कहा गया है। हमारी संस्कृति में ही ईश्वर को मां के रूप में पूजे जाने की परंपरा है, लेकिन नारी को शक्ति के रूप में पूजने वाले इसी भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही नारी की दशा सोचनीय रही है। कहने के लिए तो नारी जीवन रूपी गाड़ी का दूसरा पहिया है, जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, लेकिन वही नारी सदियों से तरह-तरह के अत्याचारों का शिकार होती रही है। जो समाज देवताओं की पत्नियों की शक्ति के रूप में पूजा करता है, वही समाज अपने घर पर पत्नी, बहन, बेटी और बहू पर अत्याचार करने में जरा भी संकोच नही करता। 

इसके दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण और क्या हो सकते हैं कि सरे आम राह चलती महिला ही बलात्कार का शिकार हो जाती है। दुधमुंही बच्चियां तक सुरक्षित नही हैं। माना कि प्रकृति ने भी शारीरिक रूप से नारी पुरुष की अपेक्षा कमजोर बनाया है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि नारी की इस कमजोरी का लाभ उठाकर उसका अपमान किया जाए। आज कन्या भ्रूण हत्या को रोकने की मुहीम चलाई गई है। घरेलू हिंसा को लेकर सजा निश्चित है। लेकिन आए दिन जो महिलाओं को उठाकर उनसे बलात्कार हो रहे हैं, उनकी निर्मम हत्या हो रही है। इन घटनाओं के बाद महिला आयोग एक चिट्ठी लिख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है।

घर पर ही क्यों आज तो राह चलती कोई भी स्त्री सुरक्षित नही है। पिछले दिनों दिल्ली की सड़क पर कैंची के 25-30 घाव देकर सरेआम एक स्त्री की जान ले ली एक सरफिरे ने। उसपर दुःख इस बात का है, कि लोग एक स्त्री को जान से मारने का तमाशा देखते हुए, उसकी बिना सहायता किए आगे बढ़ लेते हैं। क्या सारी भीड़ मिलकर एक हमलावर को रोकने का सामर्थ्य नही रखती? कितना असंवेदनशील होता जा रहा है, हमारा समाज। कल उस स्त्री के स्थान पर किसी की भी बहन, माँ, बेटी हो सकती है। क्या तब भी तमाशबीन ही बने रहेंगे लोग? 

प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाओं के प्रति इस तरह के बढ़ते हुए अपराधों को रोक जा सकता है? बिलकुल... यदि समाज नारी के प्रति अपने नजरिए को बदल दे तो यह भी हो सकता है, और शुरुआत परिवारिक स्तर पर की जानी चाहिए। परिवार के हर बेटे को बेटी की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपकर उन्हें माँ, बहन, बेटी का सम्मान करना सिखाया जाए तो वह बाहर जाकर हर स्त्री का सम्मान करेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके संस्कारों में शामिल हो जाएगा। 

महिलाओं को कानूनी सुरक्षा और उनके प्रति अपराध करने वाले अपराधियों को कडे़ से कड़ा और शीघ्र दंड मिले, ऐसे परिवार का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए। तब शायद महिलाओं की इस समस्या का निवारण सम्भव होगा। 

युग बदला, सब बदला, लेकिन नारी के प्रति जो सदियों पूर्व बर्बर युग की सोच थी, आज भी वही है। ये समाज नही बदला, और न जाने कब बदलेगा?

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

तान्हा पोळा एवं मारबत - बड़ग्या उत्सव

भारतीय जनमानस में लोकपर्वों का अत्यधिक महत्व है, उत्सवधर्मी समाज इन पर्वों को बड़ी धूमधाम से मनाता है। ग्रामीण भारत के अधिकांशत: त्यौहार कृषि पर आधारित होते हैं,  ऐसा ही एक त्यौहार महाराष्ट्र के विदर्भ में पोला मनाया जाता है।  जो कृषि कार्य में संलग्न पशुधन के प्रति श्रद्धा एवं आभार व्यक्त करने का पर्व है। अमावस्या को बड़ा पोला मना कर उसके दूसरे दिन पड़वा को बच्चों के आनंद व उन्हें अपनी माटी से जोड़ने हेतु भोसला शासन काल में तान्हा पोला की शुरुआत हुई।  

इस दिन छोटे बच्चे लकड़ी से बने सुंदर सुन्दर बैलों को सजाकर शाम को हनुमान मंदिर के पास सुंदर वेशभूषा में सज संवर के एकत्रित होते हैं।  आम की पत्तियों और फूलों से बने तोरण को तोड़कर पोळा फूटता है।  इसके बाद हर घर के द्वार पर पुत्र की माता या दादी के द्वारा बैल की पूजा तथा बालक का तिलक करके स्वागत किया जाता है व उपहार स्वरुप मिठाई, चॉकलेट बिस्किट या पैसे दिए जाने की परंपरा है जिसे " बोजारा" कहते हैं. इसके साथ ही भीगी हुई चने की दाल व ककड़ी का प्रसाद बांटा जाता है। 
अनेक स्थानों पर लकड़ी के बैलों की सजावट स्पर्धा, वेशभूषा स्पर्धा का आयोजन किया जाता है, विजेता को पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इस दिन बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है, बड़ों को भी आपसी मेल - मिलाप का अवसर मिल जाता है। 

इसी दिन अनिष्ट के निवारण व बुराई के विरोध में मारवत उत्सव भी  मनाया जा रहा है, एक सौ सैंतीस वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए इस उत्सव को मनाने की परम्परा आज भी क़ायम है। सम्पूर्ण विदर्भवासियों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।  इसमें काली मारबत, पीली मारबत व आतंकवाद, देशद्रोह, भ्रष्टाचार व सामाजिक व राष्ट्रीय मुद्दों के तहत प्रतीकात्मक बड़ग्या के पुतले बनाए जाते हैं। जुलुस के साथ इन्हें शहर में घुमाया जाता है, व इन सभी बुराईयों को "घ्यून जा गे  ... मारबत (साथ ले जा मारबत) के नारों द्वारा मारबत से साथ अपने ले जाने की प्रार्थना की जाती है।  संदल, ढोल - नगाड़े और अबीर-गुलाल खेलते हुए अंत में नाईक तालाब में विसर्जन कर दिया जाता है। 

लोक पर्व हमारे मानस में इतने रचे बसे हैं कि आधुनिकता की आँधी इन्हें उड़ाकर नहीं ले जा सकी, भले ही रुप बदल गया हो पर लोक पर्व वर्तमान में भी कायम हैं। यही हमारी संस्कृति है जो गाँवों का शहरीकरण होने के बाद भी जीवित है और प्रकृति के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए पशुओं एवं अन्य प्राणियों का सम्मान करना सिखाती है।