बुधवार, 12 जुलाई 2017

सेल्फी से प्राण गंवाते युवा

"सेल्फी मैंने ले ली आज, सेल्फी मैंने ले ली आज" ढिंचैक पूजा के इस वाहियात गर्दभगान से आज के युवाओं की मानसिकता का पता चलता है कि स्वचित्र के प्रति अनुराग किस जानलेवा स्तर तक बढ़ गया है। पिकनिक स्पॉट, समंदर की लहरें, ऊंची चट्टानें, नदी की जलधारा, चलती ट्रेन जैसी खतरनाक ज़ोखिम भरी जगहें युवाओं को सेल्फी लेने के लिए आकर्षित करती है और यही दीवानगी जानलेवा साबित हो रही है।

पिछले दिनों गुरुपूर्णिमा के दिन नागपुर के समीप वेना डैम में नाव पर सेल्फी लेने के चक्कर में घटी हृदय विदारक घटना आठ युवकों की मौत का कारण बनी। जिसमे से चार तो परिवार के इकलौते चिराग़ थे। एक के विवाह को सिर्फ डेढ़ वर्ष हुआ था, और चार माह की बेटी। मृतकों के परिवारों पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।

सेल्फी का क्रेज दरअसल एक जानलेवा एडवेंचर साबित हो रहा है जहां मौज-मस्ती की चाह और कुछ नया कर गुजरने ख्वाहिश रखनेवाले (ज्यादातर युवाओं) को जान से हाथ धोना पड़ता है या अन्य दुर्घटना का शिकार होना पड़ता है। यह अजीब विडंबना है कि महज एक सेल्फी के लिए युवा अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठ रहे हैं। सेल्फी से जुड़ा एक्सपेरिमेंट दरअसल जानलेवा साबित हो रहा है लेकिन ज्यादातर युवा इसे नजरअंदाज कर रहे है जिससे भयावह स्वरूप हम सामने देख रहे है, जो चिंतित करनेवाला है।

सेल्फी जानलेवा साबित हो रही है उसके लिए सावधानी बरतना जरूरी है। सेल्फी की आस में ऐसे 'जानलेवा एवडेंचर' से बचा जाए जहां जान का खतरा हो, किसी दुर्घटना का अंदेशा हो। इसके लिए जरूरी है कि चलती ट्रेन, चलती गाड़ी ,पहाड़ों और छत, गहरे पानी में नाव आदि पर सेल्फी लेने से बचना चाहिए। ऐसी जगहों पर ज्यादातर ये देखा गया है कि 'परफेक्ट' सेल्फी पिक्चर के चक्कर में दुर्घटना हो जाती है जिसका हमें कतई अंदाजा नहीं होता। सेल्फी का शौक या क्रेज बुरा नहीं कहा जा सकता लेकिन यह उस हद तक नहीं होना चाहिए जहां जिंदगी सुरक्षित नहीं रह जाती और मुश्किलों में घिर जाती है। सेल्फी की 'अति' पर नियंत्रण रखने की जरूरत है।

ख़्वाहिशों या क्रेज की नदिया में ऐसी भंवर हर्गिज ना हो जिससे आपकी जिंदगी पर किसी भी प्रकार का खतरा मंडराता हो। एक जीवन के साथ उसके परिवार, उसके अपनों का स्नेह, जीवन और सपने जुड़े होते हैं। जिंदगी अनमोल है, इसे सेल्फी जैसे क्रेज से खत्म करना कहां की समझदारी है?

न जाने कितने प्राण सेल्फी के चक्कर में गए हैं तब भी लोग सावधानी नहीं बरत रहे। "बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।" जीवन कितना महत्वपूर्ण है, अगर एक बार प्राण निकल गये तो दुबारा नहीं लौटने वाले, फोटो का क्या है, यहाँ नही तो वहाँ ली जा सकती है, इसलिए सावधानी रखना बहुत ही आवश्यक है जिससे परिजनों को दारुण दुख सहना न पड़े।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

नर्मदा नदी और उसके घाटों से जीवन का रिश्ता - जबलपुर, म. प्र.


आदिकाल से ही नदियों के साथ मनुष्य का एक भावनात्मक रिश्ता रहा है, लेकिन हमारे देश भारत में इन्सान का जो रिश्ता नदियों के साथ रहा है, उसकी मिसाल शायद ही किसी दूसरी सभ्यता में देखने को मिले। नदियों के साथ भारत के लोगों का रिश्ता जितना भावनात्मक है, उससे कहीं ज्यादा आध्यात्मिक है।

उन्ही नदियों में से है एक नदी नर्मदा। जिसे मैंने जीवन के साथ जिया है। बाल्यकाल में जब भी मुझसे मिलती स्वस्थ, ऊर्जा से भरपूर  मासूम बच्ची की तरह कूदती-फाँदती, किलकारियाँ भरती दौड़ती सी प्रतीत होती थी। जंगलों-घाटियों, खेतों- पहाड़ों को तेजी से पार करती हुई इतनी बेकल कि कहीं नहीं रुकती, विश्राम न करती। बिना रुके, बिन थके बस दौड़ती चली जाती। राह में आने  वाले पत्थर-मिट्टी, पेड़-पौधों के साथ रिश्ता जोड़तीं, घाटों-तटों और ऊँचे पहाड़ों पर बसे हुए गावों को एक सूत्र में बाँधती चलती।  
जन्म से लेकर मृत्यु व मृत्यु के पश्चात् भी मोक्षदायिनी, जगतारणी का सामीप्य अद्भुत ऊर्जा का संचार करने वाला होता है। 
तभी तो स्थानीय लोकगीतों कहते हैं - 
नरबदा मैया ऐसी मिली रे 
ऐसी मिली रे जैसे मिल गए महतारी और बाप रे 
नरबदा मैया हो SSSSS

किशोरवय होते-होते मेरी नज़रों ने भी बदल दिया इसका रूप। स्वाभाविक चंचलता और चुलबुलेपन को छोड़ कर गांभीर्य को ओढ़े शर्मीली, लचीली, गुनगुनाती, एक नवयुवती सी, जिसके सामने था असीम विस्तार और क्षितिज तक फैला हुआ एक खुला आसमान। मैदानों में जीवन और उर्वरता बिखेरती,  तरह-तरह के जीव-जंतुओं, वनस्पतियों को पालती-पोसती हुई, कब युवती से माँ में परिवर्तित हो गई पता ही न चला। 
अल्हड सा मन कलकल बहती नदिया की ताल पर आँखे मूंदकर जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है,खो जाता है इस अद्भुत प्राकृतिक वातावरण में और हौले से गुनगुना उठता है - 
ओ कान्हा, मोरी भर दो गगरिया
भर दो भरा दो, सर पे धरा दो
ओ कान्हा, बतला दो डगरिया। ओ कान्हा...।
गोकुल नगर में लगी है बजरिया
ओ कान्हा, मोह ला दो चुनरिया। ओ कान्हा...।
कोई नगर से वैदा बुला दो
झड़वा दो अरे मोरी नजरिया। ओ कान्हा...।
मैं तो रंग गई, कान्हा रंग में
सूझे न मोहे, कोई डगरिया

ये माँ नर्मदा के तट ही तो है जहाँ जनमानस अपनी आस्था के उपक्रमों को जोड़ता हैं और आसक्ति से मोह और मोह से मोक्ष तक का सफर समझ पाते हैं। लोग सुख के क्षणों में उसके किनारे की चाह रखते हैं तो दुःख के समय इसके बहते पानी को देख कर जिंदगी में निरंतरता का पाठ सीखते हैं। इसके घाट अनगिनत अंतिम संस्कारों के साक्षी हैं। कोई आत्मा की शांति तो कोई मृत-आत्मा की शांति के निमित्त इसकी शरण में जाता है। प्रेमी-युगल इसके घाट किनारे बैठकर अपने नवजीवन के स्वप्न बुनते हैं। तो कहीं बाल्य अवस्था की किलकारियाँ मुंडन संस्कार करवाती हुई गूंजती सुनाई देती है। 
जन्म - मरण के बंधन से मुक्ति-विरक्ति के भाव जन्म लेते हैं , तो मन कह उठता है 
जिदना मन पंछी उड़ जानैं,
डरौ पींजरा रानैं।
भाई ना जै हैं बन्द ना जैहें।
हँस अकेला जानें।
ई तन भीतर दस व्दारे हैं
की हो के कड़ जाने।
कैवे खों हो जै है ईसुर।
एैसे हते फलाने।
 
ऊँच-नीच, जिंदगी के सुख-दुःख, उलझनें, माधुर्य-गंदगी, शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य के अनुभवों को समेटे हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए घाटों-तटों में फैली हुई दुनियादारी, जीवन की सरलता-कटुता, उचित-अनुचित को निभाते हुए हर उलझन और सुलझन भरी रोजमर्रा की घटनाओं के साथ ही इतिहास के हर बदलते परिदृष्य की साक्षी है नदी और यही कारण भी है उसके हर तट से लगाव का। 

ग्वारीघाट- ऐसी मान्यता है कि यहां मां पार्वती यानी गौरी ने तपस्या की थी। यहां मौजूद गौरी कुंड भी इस बात का प्रमाण देता है। पहले यह घाट गौरीघाट के नाम से जाना जाता था।लेकिन वर्तमान समय में इसे ग्वारीघाट कहते हैं।

ग्वारी का मतलवगांव और घाट का मतलव नदी किनारे का स्थान इसलिए अव ये ग्वारीघाट कहलाता हैं। कुछ लोग मानते हैं कि गौरीघाट का अपभ्रंश होकर इसका नाम ग्वारीघाट हो गया है। इसे मुख्य घाट के नाम से भी जाना जाता हैं। जहां पुराहित बैठ कर धार्मिक कार्य जैसे मुंडन,काल सर्प की पूज,दीप-दान,कथा आदि कार्यों का आयोजन करते है।

सिद्घ घाट- जैसा कि नाम से ही इस घाट का नाम ध्यान और सिद्घी से जुड़ा हुआ है। यहां एक जलकुंड मौजूद है। मान्यता है कि इसमें साल भर पानी भरा रहता है। यह भी माना जाता है कि कुंड के पानी को शरीर में लगाने से चर्म रोग ठीक हो जाता हैं। इसी घाट पर मां नर्मदा की आरती की जाती हैं।

जिलहरी घाट- ग्वारीघाट से कुछ ही दूरी पर स्थित नर्मदा के इस घाट की कहानी शंकर जी से जुड़ी है। यह मान्यता है कि यहां यहा पत्थर पर स्वनिर्मित भगवान शंकर की एक जिलहरी है। जिलहरी के कारण ही इस घाट का नाम जिलहरी घाट पड़ा।

उमा घाट- यह घाट ग्वारीघाट का ही एक हिस्सा है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने इस घाट का जिर्णोधार करवाया था। यह घाट मुख्य रूप से महिलाओं के लिए बनवाया गया था। उमा भारती के नाम के कारण ही इस घाट को उमा घाट के नाम से जाना जाने लगा। वहीं पार्वती जी की तपस्या यहां भी होना माने जाने के कारण भी इसे उमा घाट कहते हैं।

लम्हेटाघाट- प्राचीन मंदिरों के कारण इस घाट का काफी महत्व है। इस घाट पर स्थित है श्री यंत्र का मंदिर जिसे मां लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में पूजा एवं अनुष्ठान करने लक्ष्मी की प्राप्ती होती हैं। जहां तक नाम का सवाल है तो लम्हेटा नाम के गांव के किनारे बसे होने पर इसे लम्हेटा घाट कहते हैं। एक रोचक बात यह है कि घाट का उत्तरी तट लम्हेटा और दक्षिणी तट लम्हेटी कहलाता है। एक अन्य विशेषता है यहां के फॉसिल्स। जो लम्हेटा फॉसिल्स के नाम से प्रसिद्घ हैं।

पंचवटी घाट- मान्यता है कि वनवास के दौरान श्रीराम यहां आए और भेड़ाघाट स्थित चौसठ योगिनी मंदिर में ठहरे थे। भेड़ाघाट का नाम भृगु ऋषि के कारण पड़ा। पंचवटी में अर्जुन के पांच वृक्ष होने के कारण इसका नाम पंचवटी पड़ा। यहाँ पर संगमरमर के सफ़ेद, व मनोहारी हल्के रंगों के पहाड़ों के बीच नौकायान करना अद्भुत आनंददायक है., विशेषकर, चांदनी रात में यहाँ की प्राकृतिक छठा देखने लायक होती है।  एक जगह पर दो पहाड़ों के बीच की दूरी इतनी कम हो जाती है कि कहा जाता है बन्दर इधर से उधर उछल कर नदी को पार कर लेते हैं, जिसे बंदरकूदनी नाम दिया गया है। 


तिलवारा घाट- प्रचीनकाल में तिल भांडेश्वर मंदिर यहां हुआ करता था। इसके साथ तिल संक्राति का मेला भरने के कारण भी इसे तिलवारा घाट कहते हैं।

सभी घाटों का अपना महत्व

सभी घाट अपने आप में एक प्रसिद्धि लिए हुए हैं। सब घाटों का अपना-अपना अलग धार्मिक महत्व हैं। जिनमें से मुख्य रूप से ग्वारीघाट का धार्मिक दृष्टि से,भेड़ाघाट व पंचवटी घाट का पर्यटन की दृष्टि से और तिलवारा का मकर संक्राति की दृष्टि से अपना महत्व हैं। 

अगर हमें अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति को बचाना है, उसे बेहतर बनाना है तो हमें नदियों से प्रेम करना सीखना होगा। हमें इस नदी से वही पुराना माता और संतान वाला नाता जोड़ना होगा। इनके घाट संवारने होंगे और पूजा-पाठ से लेकर पर्यटन तक के रिश्ते कायम करने होंगे। 

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

ओ गौरैया !

ओ गौरैया !
अब लौट आओ
बदल गया है इंसान
प्रकृति प्रेमी हो गया है
आकर देखो तो ज़रा
इसके कमरे की दीवारें
भरी पड़ी है तुम्हारे चित्र से
ऐसे चित्र
जिनमें तुम हो,
तुम्हारा नीड़ है,
तुम्हारे बच्चे है
सीख ली है इसने
तुम्हारी नाराज़गी से
सर आँखों पर बिठाएगा
तिनका- तिनका संभालेगा
ओ गौरैया !
आ भी जाओ
तुम्हे मिलेगा
तुम्हारे सपनों का संसार !
और तुम
यह सब देखकर
पहले की तरह
खुश हो पाओगी
आँगन - आँगन चहकोगी
बाहर-भीतर भागोगी
तो फुदको आकर
मुँडेर - मुँडेर
बना लो न!
हमारे घर को
तुम्हारा भी घर....

बुधवार, 29 मार्च 2017

भवानी माता मंदिर पारडी, नागपुर - अनूठी लोककल्याणकारी पहल

प्राचीन काल में शासक शक्ति के उपासक रहे हैं एवं शक्ति स्वरुप उन्होंने अपने राज्य में देवियों के मंदिरों का निर्माण किया। इसी परिपाटी में भोसला शासकों ने भी देवियों के मंदिरों का निर्माण कराया तथा इनके द्वारा प्राचीन मंदिरों के जीर्णोद्धार करवाने के प्रमाण अभिलेखों में ज्ञात होते हैं। ऐसा ही एक मंदिर नागपुर की पूर्व दिशा में आधे घंटे की दूरी पर भंडारा रोड पर पुनापुर, पारडी में स्थित है। यह भोसंलाकालीन होने के कारण लगभग ५०० वर्षों पुराना माना जा सकता है। यह मंदिर भवानी माता के नाम से प्रसिद्द है। 



यहाँ पृथ्वी के गर्भगृह से बाहर माता के केवल मुखमंडल के दर्शन होते हैं। माता के माथे पर करंडा पद्धति का मुकुट, कानो में स्वर्ण कुंडल व सीधी नासिका तथा उन्नत ललाट पर वर्तमान में स्वयम्भू भाव वाली सुन्दर प्रतिमा है. सहज रूप से प्रतिमा भोंसले कालीन दिखाई देती है, परन्तु मिट्टी तथा अवशेषों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा इसे यादवोत्तर कालखंड १४ या १५ वीं शताब्दी की माना जाता है, काल निर्धारण के लिए अभी वृहद शोध की आवश्यक्ता है।

मान्यता है कि अब तक माता ने तीन स्वरूपों में दर्शन दिए हैं। इस प्रकार की प्रतिमाएं महाराष्ट्र में अंबेजोगाई, माहुर-पारडी(नागपुर जिला), अमरावती, बालापुर, सोलापुर आदि स्थान पर स्थित हैं। 



भोंसलाकालीन अवशेषों के रुप में माता पूर्व में जमीन  से २ फ़ीट ऊपर 8x8 चौरस गर्भगृह में विराजमान थी. सन १९८२ के दरम्यान मंदिर के नूतनीकरण हेतु पारडी वासियों ने "श्री माता भवानी सेवा समिति " की स्थापना की। मंदिर के नूतनीकरण के लिए खर्च होने वाली राशि के प्रबंध हेतु समिति के कार्यकर्ताओं ने २०-२० लोगों की टोली बनाकर लोगों के घर-घर जाकर शादी-विवाह व अन्य कार्यक्रमों में खाना परोसने का कार्य किया तथा उस कार्य से जो भी आर्थिक अनुदान प्राप्त होता, उसे मंदिर के कोष में एकत्र किया। 
समिति गठन के समय मंदिर के पास सिर्फ २१०० वर्ग फुट जमीन उपलब्ध थी, जिसमे गर्भगृह १०० वर्ग फुट ही था. समिति के अथक प्रयास व दानदाताओं के सहयोग से वर्तमान में मंदिर के पास लगभग ७५ हजार वर्ग फुट स्थान है।  इसी स्थान पर नागर शैली में एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है।  जिसके गर्भगृह में भवानी माता विद्यमान है. मंडप के शिखर पर कलश तथा आमलक में महाराष्ट्र के महान संतों की प्रतिमाओं को स्थान दिया गया है।  मंदिर द्वार के समक्ष दाहिनी ओर भैरव देव की प्रतिमा विराजमान विराजमान है तथा मध्य में सुन्दर हवन मंडप की रचना की गई है। 


नागपुर व आसपास के क्षेत्र में यह जागृत देवी मंदिर के रूप में प्रसिद्द है।  ऐसी मानता है कि माता के दरबार में जीवंत नाग देवता का वास है।  कहा जाता है कि एक बार किसी जस गायक ने माता से ज़िद की कि "जब तक मुझे नाग देवता के दर्शन न होंगे, मैं अपना जस गान समाप्त नहीं करूँगा " उस जस गायक ने संध्याकाळ जस गान आरम्भ किया और माता की कृपा से देर रात उसे नाग देवता ने स्वयं दर्शन दिए।  ऐसे कई चमत्कार इस मंदिर के साथ जुड़े हैं।  
जस गायक नरेंद्र चंचल, छत्तीसगढ़ की लोक गायिका तीजन बाई जैसी अनेक हस्तियां माता के दरबार में आकर बिना पारिश्रमिक लिए अपनी प्रस्तुति के साथ अपनी हाजिरी लगा चुकी हैं। यहाँ श्रद्धा से की गई हर मनोकामना पूरी होती है।   

नवरात्र उत्सव -
श्री भवानी माता के मंदिर में अश्विन एवं चैत्र माह में प्रतिवर्ष नवरात्र महोत्सव आयोजित किया जाता है।  यहाँ अश्विन मास की नवरात्री में बहुत धूमधाम होती है।  घटस्थापना के द्वारा नवरात्र महोत्सव का शुभारम्भ होता है।  प्रतिदिन लगभग ४५ से ५० हजार दर्शनार्थी माता के दर्शन का लाभ लेते हैं।  नौ दिनों तक माता के भक्तों द्वारा लगभग १५०० अखंड ज्योत प्रज्वलित की जाती है। 
अष्टमी के दिन यज्ञ - होम तथा नवमी को विशाल महाप्रसाद का आयोजन होता है , जिसमे लगभग एक से डेढ़ लाख लोग प्रसाद का लाभ लेते हैं।  दीपावली के अवसर पर विशेष रूप से माता को छप्पन व्यंजनों का भोग अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात उसका प्रसाद वितरण किया जाता है।   



धर्मार्थ दवाखाना - 
श्री भवानी माता सेवा समिति द्वारा जनमानस के कल्याणार्थ फरवरी २०१० में धर्मार्थ दवाखाना का आरम्भ हुआ, जिसमे नाममात्र २० रूपए के शुल्क में रोगियों को चिकित्सा सुविधा व दो दिन की दावा दी जाती है।  नाममात्र शुल्क में इस दवाखाने में ई. सी. जी. सुविधा, डिजिटल एक्सरे, सोनोग्राफी, पैथोलॉजी, नेत्र चिकित्सा, दन्त चिकित्सा आदि की सुविधाएं दी जाती है।  यहाँ लगभग १५० से २०० रोगियों का प्रतिदिन इलाज़ किया जाता है।  समिति द्वारा २४ घंटे एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध करवाई गई है, जिस का लाभ जनमानस को प्राप्त हो रहा है।  इसके साथ ही यहाँ धर्मार्थ हास्पिटल बनाए जाने की योजना पर भी काम हो रहा है। 

माँ भवानी गौरक्षण - 
माता भवानी के आशीर्वाद से समिति द्वारा एक और अत्यंत सराहनीय व पुनीत कार्य किया जा रहा है , वह है पारदी से लगभग १० किमी दूर गारला, दिघोरी (महालगांव) में माँ भवानी गौरक्षण केंद्र का निर्माण किया गया है, जिसमे गौशाला(३ शेड, प्रति शेड १०८ गौमाता हेतु ), राधाकृष्ण मंदिर, भक्तों के ठहरने हेतु संत निवास, सत्संग हेतु सभागृह सहित दुर्बल एवं बीमार गायों की सेवा हेतु एक उपचार केंद्र का भी निर्माण किया गया है।  वर्तमान में गौरक्षण केंद्र में लगभग १०० से १४० गौ माताओं की सेवा की जा रही है। इस तरह भवानी माता के मंदिर के माध्यम से लोककल्याणकारी कार्यों को भी किया जा रहा है।

शनिवार, 4 मार्च 2017

आम बौराइल, गमके महुआ, कुहू - कुहू बोले कोयलिया

भारत में ऋतुओं का अपना आनंद है। वसंत तो ऋतुराज है और यह पूरी ही अवधि पर्वों की शृंखलाएं लिए हमारे बीच आती है और सहस्राब्दियों पुराने पर्वों से लेकर नवीन मान्‍यताओं वाले पर्व तक इस अवधि में मानेे और मनाए जाते हैं। यह राग और रंग की अवधि है और पीताभ इस ऋतु की विशेष रंगत है।
कोयल की मीठी कूक और सरसों के पीले-पीले फूल झूमझूमकर ऋतुराज के आगमन की घोषणा करते हैं। खेतों में फूली हुई सरसों, पवन के झोंकों से हिलती, ऐसी दिखाई देती है, मानो किसी इतराती नवयौवना का सुनहरा आंंचल लहरा रहा हो। लोक में चैता के नाम से गाये जाने वाले गीतों में इस पर्व के भाव गूंथे हुए मिलते हैं। यह मौसम अलस, उदासी भरा माना जाता है और फागुन का समस्‍त नशा, सारी मादकता घनीभूत होकर इन गीतों में छिटकी जाती है - 
भूलि मति जइयो मुरारी, लगन जगाई के, हो रैसिया, 
लगन लगाई केा चुनरी अकासे उडे मोरी, 
धरती न सैंया धरूं पांव, तोरे संग निकसूं जब मैं देखे सारा गांव। 
भूलि मति जइयो मुरारी लगन लगाइ के, 
फुलवा तू काहे तोरि डारी, 
तडपे मछरिया बिपानी, रहूंगी अकेली कैसे ननदी के बीर,
भूलि मति जइया मुरारी लगन लगाइ के...।




मुुदित प्रकृति के गान -
इस अवधि में प्रकृति का रोम-रोम खिल उठता है। मनुष्य तो क्या, पशु पक्षी भी आनंद से परिपूर्ण हो उठते हैं। सूर्य की मद्धम रश्मियों के साथ शीतल वायु मानव चेतना को उल्लसित कर देती  है। वसंतोन्माद में कोई वासंती गीत गा उठता है तो नगाड़ोंं की थाप के साथ अनहद वाद्य बजने लगते हैं। बारहमासा गीतों में इस पर्वावधि की रोचकता दिखाई देती है - 
पत मोर राखा सजनवा हो रामा, पत मोर राखा। 
फागुन मास फगुन जन भूले, सखी सब चली गवनवा हो रामा, 
चैत मास वन टेसू फूले, बैसाखे ताप तपनवा हो रामा...।


इस अवधि में शीशम के पेड़ हरे रंग की रेशम सी कोमल पत्तियों से ढँक जाते हैं। स्त्री पुरूष केसरिया वेशभूषा में प्रकृति के रंगों में घुल मिल जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो, वे भी प्रकृति के अंग हों। मधुुरता, कोमलता तथा मनुष्‍य के मन की व्‍य‍था की सहज अभिव्‍यक्ति में चैता गीत अपना सानी नहीं रखते- 
रसे रसे डोले पवनवा हो रामा, चैत महिनवा। 
चैत अंजोरिया में आप नहाइले, तरई क चुनरी प‍हिरि मुसकाइले, 
रहि रहि हुलसे परवना हो रामा, चैत महिनवा।
कुहू कुहू कोइलिया अंधेरे अंगिया डगरिया के टक टक हेरे, 
भइल अधीर नयनवा हो रामा, चैत महिनवा।
फुनगी से झांके रे नन्‍हीं नन्‍हीं पतियां, 
लहरि लहरि समझावेलि बतिया, 
जाने के कौन करनवा हो रामा, चैत महिनवा। 
होत बिहाने बहारे घना अंगना, धीरे से खनक उठइ कर कंगना, 
लहरे ला रस का सपनवा हो रामा, चैत महिनवा।  

अतीत के साक्ष्‍य -
ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं कि प्राचीन काल में भारत में कामदेव के सम्मान में सुवासंतक नामक पर्व मनाया जाता था। यह उन दिनों का सबसे अधिक आमोद और उल्लासपूर्ण पर्व था। उसे वसंतोत्सव या मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। इस उत्सव में नृत्य व गीत गाए जाते थे, जिसमें स्त्री और पुरूष समान रूप से भाग लेते थे। प्रकृति अपनेे आल्‍हाद को छिटकाती लगती थी और इस दौर में मन गा उठता था- 
अमवा की डरिया पे बोले रे कोयलिया रामा, बोले रे कोयलिया, 
जियरवा उलझे ना। सुनि कोयल की बोलिया, जियरवा उलझे ना। 
आम बौराइल रामा, गमके महुआ रामा, गमेेके महुअवा, जियरवा उलझे ना।
देखि अमवन की डरिया, जियरवा उलझे ना, महुवा बिनन गइलीं सखियन के संगवा रामा। 
सखियन के संगवा जियरवा उलझे ना। 
देखि बाबा फुलवरिया, जियरवा उलझे ना। 
अमवा की डरिया पे बोले रे कोयलिया, बोले रे कोयलिया, जियरवा उलझे ना...।


सचमुच कचनार (बौहीमिया) की पत्तियों–रहित शाखाएँ गुलाबी, सफेद और बैंगनी–नीले फूलों से ढँक जाती हैं। कचनार के कोमल फूल चित्त को प्रफुल्लित करते हैं। कचनार के बाद सेमल के फूलने की बारी आती है। वसंत में इनकी पर्णरहित टहनियों में कटोरी जैसे आकार के नारंगी और लाल फूल खिल जाते हैं। फूलों से आच्छादित सेमल के वृक्षों को देख कर ऐसा आभास होता है मानो ये केवल पुष्पों का सजा हुआ गुलदस्ता हो। सूनी पड़ी अमराइयों में भी सहसा नया जीवन आ जाता है, और आम्र वृक्षों पीली मंजरियों के साथ ख़ुशी से बौराने से लग जाते हैं। बौर की मधुर सुगंध से कोयलें अमराइयों में खिंच आती हैं और उनकी कुहू–कुहू की मधुर पुकार अमराइयों में गूँज उठती है।

कुदरत का करिश्‍मा -
टेढ़े मेढ़े ढाक के पेड़, जिन्हें अनदेखा किया जाता है, वसंत के आते ही इनकी त्रिपर्णी पत्तियाँ गिर जाती हैं और टहनियाँ गहरे भूरे रंग की कलियों से भर जाती हैं। कुछ दिनों के बाद सारी कलियाँ एक साथ अचानक खिल जाती हैं,और इन पेड़ों से से घिरे वन आग की लपटों जैसे नारंगी–लाल रंग के फूलों से लदे हुए प्रज्वलित अंगारों से दिखाई देते हैं। मन की ख्‍वाहिशें हिलोर लेती हैं और गला गा उठता है- 
पिया जब जइहैं विदेसवा हो रामा, बिंदुली लै अइहैं।
बिंदुली के संग संग टिकवा ले अइहैं टिकवा त सोहे मोरे मथवा हो रामा, बिंदुली लै अइहैं।


इस अवधि में कुसुमित वृक्षों की शाखाओं में हिंडोले डाले जाते हैं। पुष्पित वृक्षों पर मधुमक्खियों के झुंड के झुंड गुंजार करते और पुष्प गंध का आनंद लूटते हैं। वसंत ऋतु की पूरी छटा निखर आती है। प्रेम और उल्लास इस मास में अपनी चरम सीमा को पहुँच जाते हैं। चमेली की कलियाँ खिल जाती हैं और अपने सौरभ से वायु को सुवासित करती हैं। मानसरोवर झील की तरह आकाश भी निर्मल और नीला हो जाता है, मानो उसमें सूर्य और चंद्र रूपी दो बड़े फूल खिल रहे हों। कवि मन भी भला पीछे क्यों रहे? वह भी पहुँच जाता है अपनी धरा की पुकार लेकर वसंत के पास और करने लगता है वसंत से शीघ्रातिशीघ्र धरती पर आगमन के लिए मनुहार : 
लेकर सरसों सी सजीली धानी चूनर, 
समेट कर खुशबुएं सोंधी माटी की, 
पहन किरणों के इंद्रधनुषी लिबास, 
आ जाओ वसंत धरा के पास, 
सजा सुकोमल अल्हड़ नवपल्लवी भर देना सुवास, 
बिखेरो रंग हजार, न रहने दो धरा को देर तक उदास, 
आ जाओ वसंत धरा के पास....
नवपल्‍ल्‍व फूटे इतराई बालियां, 
सेमल, टेसू फूले, अकुलाया मन जगा महुआ सी बौराई आस, 
आ जाओ वसंत धरा के पास, 
बोली कोयलिया, बौराए बौर आम के भौरों की गूँज संग, 
कलियों का उछाह बही बसंती बयार,
लिए मद मधुमास आ जाओ बसंत धरा के पास...।

सोमवार, 2 जनवरी 2017

आओ, नूतन वर्ष मनाएं ...



एक बरस और बीत रहा है
आओ हिलमिल हर्ष मनाएं 
आओ, नूतन वर्ष मनाएं 

जीवनतरु के नवपल्लव में 
नव आशा के पुष्प सजाएं 
आओ, नूतन वर्ष मनाएं

अपने तो सदा अपने हैं
गैरों को भी मीत बनाएं
आओ, नूतन वर्ष मनाएं   

नए-नए रंग हों नई उमंगें 
नयनों में उल्लास जगाएं 
आओ, नूतन वर्ष मनाएं 
 
नए गगन को छू लेने का 
मन में नव विश्वास जगाएं 
आओ, नूतन वर्ष मनाएं 

हरी धरा हो रुत मनभावन 
जीवन में मधुमास खिलाएं
आओ, नूतन वर्ष मनाएं  .... !

आप सबके लिए नववर्ष मंगलमय और खुशियों से भरा हो .... संध्या शर्मा