बुधवार, 29 मार्च 2017

भवानी माता मंदिर पारडी, नागपुर - अनूठी लोककल्याणकारी पहल

प्राचीन काल में शासक शक्ति के उपासक रहे हैं एवं शक्ति स्वरुप उन्होंने अपने राज्य में देवियों के मंदिरों का निर्माण किया। इसी परिपाटी में भोसला शासकों ने भी देवियों के मंदिरों का निर्माण कराया तथा इनके द्वारा प्राचीन मंदिरों के जीर्णोद्धार करवाने के प्रमाण अभिलेखों में ज्ञात होते हैं। ऐसा ही एक मंदिर नागपुर की पूर्व दिशा में आधे घंटे की दूरी पर भंडारा रोड पर पुनापुर, पारडी में स्थित है। यह भोसंलाकालीन होने के कारण लगभग ५०० वर्षों पुराना माना जा सकता है। यह मंदिर भवानी माता के नाम से प्रसिद्द है। 



यहाँ पृथ्वी के गर्भगृह से बाहर माता के केवल मुखमंडल के दर्शन होते हैं। माता के माथे पर करंडा पद्धति का मुकुट, कानो में स्वर्ण कुंडल व सीधी नासिका तथा उन्नत ललाट पर वर्तमान में स्वयम्भू भाव वाली सुन्दर प्रतिमा है. सहज रूप से प्रतिमा भोंसले कालीन दिखाई देती है, परन्तु मिट्टी तथा अवशेषों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा इसे यादवोत्तर कालखंड १४ या १५ वीं शताब्दी की माना जाता है, काल निर्धारण के लिए अभी वृहद शोध की आवश्यक्ता है।

मान्यता है कि अब तक माता ने तीन स्वरूपों में दर्शन दिए हैं। इस प्रकार की प्रतिमाएं महाराष्ट्र में अंबेजोगाई, माहुर-पारडी(नागपुर जिला), अमरावती, बालापुर, सोलापुर आदि स्थान पर स्थित हैं। 



भोंसलाकालीन अवशेषों के रुप में माता पूर्व में जमीन  से २ फ़ीट ऊपर 8x8 चौरस गर्भगृह में विराजमान थी. सन १९८२ के दरम्यान मंदिर के नूतनीकरण हेतु पारडी वासियों ने "श्री माता भवानी सेवा समिति " की स्थापना की। मंदिर के नूतनीकरण के लिए खर्च होने वाली राशि के प्रबंध हेतु समिति के कार्यकर्ताओं ने २०-२० लोगों की टोली बनाकर लोगों के घर-घर जाकर शादी-विवाह व अन्य कार्यक्रमों में खाना परोसने का कार्य किया तथा उस कार्य से जो भी आर्थिक अनुदान प्राप्त होता, उसे मंदिर के कोष में एकत्र किया। 
समिति गठन के समय मंदिर के पास सिर्फ २१०० वर्ग फुट जमीन उपलब्ध थी, जिसमे गर्भगृह १०० वर्ग फुट ही था. समिति के अथक प्रयास व दानदाताओं के सहयोग से वर्तमान में मंदिर के पास लगभग ७५ हजार वर्ग फुट स्थान है।  इसी स्थान पर नागर शैली में एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है।  जिसके गर्भगृह में भवानी माता विद्यमान है. मंडप के शिखर पर कलश तथा आमलक में महाराष्ट्र के महान संतों की प्रतिमाओं को स्थान दिया गया है।  मंदिर द्वार के समक्ष दाहिनी ओर भैरव देव की प्रतिमा विराजमान विराजमान है तथा मध्य में सुन्दर हवन मंडप की रचना की गई है। 


नागपुर व आसपास के क्षेत्र में यह जागृत देवी मंदिर के रूप में प्रसिद्द है।  ऐसी मानता है कि माता के दरबार में जीवंत नाग देवता का वास है।  कहा जाता है कि एक बार किसी जस गायक ने माता से ज़िद की कि "जब तक मुझे नाग देवता के दर्शन न होंगे, मैं अपना जस गान समाप्त नहीं करूँगा " उस जस गायक ने संध्याकाळ जस गान आरम्भ किया और माता की कृपा से देर रात उसे नाग देवता ने स्वयं दर्शन दिए।  ऐसे कई चमत्कार इस मंदिर के साथ जुड़े हैं।  
जस गायक नरेंद्र चंचल, छत्तीसगढ़ की लोक गायिका तीजन बाई जैसी अनेक हस्तियां माता के दरबार में आकर बिना पारिश्रमिक लिए अपनी प्रस्तुति के साथ अपनी हाजिरी लगा चुकी हैं। यहाँ श्रद्धा से की गई हर मनोकामना पूरी होती है।   

नवरात्र उत्सव -
श्री भवानी माता के मंदिर में अश्विन एवं चैत्र माह में प्रतिवर्ष नवरात्र महोत्सव आयोजित किया जाता है।  यहाँ अश्विन मास की नवरात्री में बहुत धूमधाम होती है।  घटस्थापना के द्वारा नवरात्र महोत्सव का शुभारम्भ होता है।  प्रतिदिन लगभग ४५ से ५० हजार दर्शनार्थी माता के दर्शन का लाभ लेते हैं।  नौ दिनों तक माता के भक्तों द्वारा लगभग १५०० अखंड ज्योत प्रज्वलित की जाती है। 
अष्टमी के दिन यज्ञ - होम तथा नवमी को विशाल महाप्रसाद का आयोजन होता है , जिसमे लगभग एक से डेढ़ लाख लोग प्रसाद का लाभ लेते हैं।  दीपावली के अवसर पर विशेष रूप से माता को छप्पन व्यंजनों का भोग अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात उसका प्रसाद वितरण किया जाता है।   



धर्मार्थ दवाखाना - 
श्री भवानी माता सेवा समिति द्वारा जनमानस के कल्याणार्थ फरवरी २०१० में धर्मार्थ दवाखाना का आरम्भ हुआ, जिसमे नाममात्र २० रूपए के शुल्क में रोगियों को चिकित्सा सुविधा व दो दिन की दावा दी जाती है।  नाममात्र शुल्क में इस दवाखाने में ई. सी. जी. सुविधा, डिजिटल एक्सरे, सोनोग्राफी, पैथोलॉजी, नेत्र चिकित्सा, दन्त चिकित्सा आदि की सुविधाएं दी जाती है।  यहाँ लगभग १५० से २०० रोगियों का प्रतिदिन इलाज़ किया जाता है।  समिति द्वारा २४ घंटे एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध करवाई गई है, जिस का लाभ जनमानस को प्राप्त हो रहा है।  इसके साथ ही यहाँ धर्मार्थ हास्पिटल बनाए जाने की योजना पर भी काम हो रहा है। 

माँ भवानी गौरक्षण - 
माता भवानी के आशीर्वाद से समिति द्वारा एक और अत्यंत सराहनीय व पुनीत कार्य किया जा रहा है , वह है पारदी से लगभग १० किमी दूर गारला, दिघोरी (महालगांव) में माँ भवानी गौरक्षण केंद्र का निर्माण किया गया है, जिसमे गौशाला(३ शेड, प्रति शेड १०८ गौमाता हेतु ), राधाकृष्ण मंदिर, भक्तों के ठहरने हेतु संत निवास, सत्संग हेतु सभागृह सहित दुर्बल एवं बीमार गायों की सेवा हेतु एक उपचार केंद्र का भी निर्माण किया गया है।  वर्तमान में गौरक्षण केंद्र में लगभग १०० से १४० गौ माताओं की सेवा की जा रही है। इस तरह भवानी माता के मंदिर के माध्यम से लोककल्याणकारी कार्यों को भी किया जा रहा है।

शनिवार, 4 मार्च 2017

आम बौराइल, गमके महुआ, कुहू - कुहू बोले कोयलिया

भारत में ऋतुओं का अपना आनंद है। वसंत तो ऋतुराज है और यह पूरी ही अवधि पर्वों की शृंखलाएं लिए हमारे बीच आती है और सहस्राब्दियों पुराने पर्वों से लेकर नवीन मान्‍यताओं वाले पर्व तक इस अवधि में मानेे और मनाए जाते हैं। यह राग और रंग की अवधि है और पीताभ इस ऋतु की विशेष रंगत है।
कोयल की मीठी कूक और सरसों के पीले-पीले फूल झूमझूमकर ऋतुराज के आगमन की घोषणा करते हैं। खेतों में फूली हुई सरसों, पवन के झोंकों से हिलती, ऐसी दिखाई देती है, मानो किसी इतराती नवयौवना का सुनहरा आंंचल लहरा रहा हो। लोक में चैता के नाम से गाये जाने वाले गीतों में इस पर्व के भाव गूंथे हुए मिलते हैं। यह मौसम अलस, उदासी भरा माना जाता है और फागुन का समस्‍त नशा, सारी मादकता घनीभूत होकर इन गीतों में छिटकी जाती है - 
भूलि मति जइयो मुरारी, लगन जगाई के, हो रैसिया, 
लगन लगाई केा चुनरी अकासे उडे मोरी, 
धरती न सैंया धरूं पांव, तोरे संग निकसूं जब मैं देखे सारा गांव। 
भूलि मति जइयो मुरारी लगन लगाइ के, 
फुलवा तू काहे तोरि डारी, 
तडपे मछरिया बिपानी, रहूंगी अकेली कैसे ननदी के बीर,
भूलि मति जइया मुरारी लगन लगाइ के...।




मुुदित प्रकृति के गान -
इस अवधि में प्रकृति का रोम-रोम खिल उठता है। मनुष्य तो क्या, पशु पक्षी भी आनंद से परिपूर्ण हो उठते हैं। सूर्य की मद्धम रश्मियों के साथ शीतल वायु मानव चेतना को उल्लसित कर देती  है। वसंतोन्माद में कोई वासंती गीत गा उठता है तो नगाड़ोंं की थाप के साथ अनहद वाद्य बजने लगते हैं। बारहमासा गीतों में इस पर्वावधि की रोचकता दिखाई देती है - 
पत मोर राखा सजनवा हो रामा, पत मोर राखा। 
फागुन मास फगुन जन भूले, सखी सब चली गवनवा हो रामा, 
चैत मास वन टेसू फूले, बैसाखे ताप तपनवा हो रामा...।


इस अवधि में शीशम के पेड़ हरे रंग की रेशम सी कोमल पत्तियों से ढँक जाते हैं। स्त्री पुरूष केसरिया वेशभूषा में प्रकृति के रंगों में घुल मिल जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो, वे भी प्रकृति के अंग हों। मधुुरता, कोमलता तथा मनुष्‍य के मन की व्‍य‍था की सहज अभिव्‍यक्ति में चैता गीत अपना सानी नहीं रखते- 
रसे रसे डोले पवनवा हो रामा, चैत महिनवा। 
चैत अंजोरिया में आप नहाइले, तरई क चुनरी प‍हिरि मुसकाइले, 
रहि रहि हुलसे परवना हो रामा, चैत महिनवा।
कुहू कुहू कोइलिया अंधेरे अंगिया डगरिया के टक टक हेरे, 
भइल अधीर नयनवा हो रामा, चैत महिनवा।
फुनगी से झांके रे नन्‍हीं नन्‍हीं पतियां, 
लहरि लहरि समझावेलि बतिया, 
जाने के कौन करनवा हो रामा, चैत महिनवा। 
होत बिहाने बहारे घना अंगना, धीरे से खनक उठइ कर कंगना, 
लहरे ला रस का सपनवा हो रामा, चैत महिनवा।  

अतीत के साक्ष्‍य -
ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं कि प्राचीन काल में भारत में कामदेव के सम्मान में सुवासंतक नामक पर्व मनाया जाता था। यह उन दिनों का सबसे अधिक आमोद और उल्लासपूर्ण पर्व था। उसे वसंतोत्सव या मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। इस उत्सव में नृत्य व गीत गाए जाते थे, जिसमें स्त्री और पुरूष समान रूप से भाग लेते थे। प्रकृति अपनेे आल्‍हाद को छिटकाती लगती थी और इस दौर में मन गा उठता था- 
अमवा की डरिया पे बोले रे कोयलिया रामा, बोले रे कोयलिया, 
जियरवा उलझे ना। सुनि कोयल की बोलिया, जियरवा उलझे ना। 
आम बौराइल रामा, गमके महुआ रामा, गमेेके महुअवा, जियरवा उलझे ना।
देखि अमवन की डरिया, जियरवा उलझे ना, महुवा बिनन गइलीं सखियन के संगवा रामा। 
सखियन के संगवा जियरवा उलझे ना। 
देखि बाबा फुलवरिया, जियरवा उलझे ना। 
अमवा की डरिया पे बोले रे कोयलिया, बोले रे कोयलिया, जियरवा उलझे ना...।


सचमुच कचनार (बौहीमिया) की पत्तियों–रहित शाखाएँ गुलाबी, सफेद और बैंगनी–नीले फूलों से ढँक जाती हैं। कचनार के कोमल फूल चित्त को प्रफुल्लित करते हैं। कचनार के बाद सेमल के फूलने की बारी आती है। वसंत में इनकी पर्णरहित टहनियों में कटोरी जैसे आकार के नारंगी और लाल फूल खिल जाते हैं। फूलों से आच्छादित सेमल के वृक्षों को देख कर ऐसा आभास होता है मानो ये केवल पुष्पों का सजा हुआ गुलदस्ता हो। सूनी पड़ी अमराइयों में भी सहसा नया जीवन आ जाता है, और आम्र वृक्षों पीली मंजरियों के साथ ख़ुशी से बौराने से लग जाते हैं। बौर की मधुर सुगंध से कोयलें अमराइयों में खिंच आती हैं और उनकी कुहू–कुहू की मधुर पुकार अमराइयों में गूँज उठती है।

कुदरत का करिश्‍मा -
टेढ़े मेढ़े ढाक के पेड़, जिन्हें अनदेखा किया जाता है, वसंत के आते ही इनकी त्रिपर्णी पत्तियाँ गिर जाती हैं और टहनियाँ गहरे भूरे रंग की कलियों से भर जाती हैं। कुछ दिनों के बाद सारी कलियाँ एक साथ अचानक खिल जाती हैं,और इन पेड़ों से से घिरे वन आग की लपटों जैसे नारंगी–लाल रंग के फूलों से लदे हुए प्रज्वलित अंगारों से दिखाई देते हैं। मन की ख्‍वाहिशें हिलोर लेती हैं और गला गा उठता है- 
पिया जब जइहैं विदेसवा हो रामा, बिंदुली लै अइहैं।
बिंदुली के संग संग टिकवा ले अइहैं टिकवा त सोहे मोरे मथवा हो रामा, बिंदुली लै अइहैं।


इस अवधि में कुसुमित वृक्षों की शाखाओं में हिंडोले डाले जाते हैं। पुष्पित वृक्षों पर मधुमक्खियों के झुंड के झुंड गुंजार करते और पुष्प गंध का आनंद लूटते हैं। वसंत ऋतु की पूरी छटा निखर आती है। प्रेम और उल्लास इस मास में अपनी चरम सीमा को पहुँच जाते हैं। चमेली की कलियाँ खिल जाती हैं और अपने सौरभ से वायु को सुवासित करती हैं। मानसरोवर झील की तरह आकाश भी निर्मल और नीला हो जाता है, मानो उसमें सूर्य और चंद्र रूपी दो बड़े फूल खिल रहे हों। कवि मन भी भला पीछे क्यों रहे? वह भी पहुँच जाता है अपनी धरा की पुकार लेकर वसंत के पास और करने लगता है वसंत से शीघ्रातिशीघ्र धरती पर आगमन के लिए मनुहार : 
लेकर सरसों सी सजीली धानी चूनर, 
समेट कर खुशबुएं सोंधी माटी की, 
पहन किरणों के इंद्रधनुषी लिबास, 
आ जाओ वसंत धरा के पास, 
सजा सुकोमल अल्हड़ नवपल्लवी भर देना सुवास, 
बिखेरो रंग हजार, न रहने दो धरा को देर तक उदास, 
आ जाओ वसंत धरा के पास....
नवपल्‍ल्‍व फूटे इतराई बालियां, 
सेमल, टेसू फूले, अकुलाया मन जगा महुआ सी बौराई आस, 
आ जाओ वसंत धरा के पास, 
बोली कोयलिया, बौराए बौर आम के भौरों की गूँज संग, 
कलियों का उछाह बही बसंती बयार,
लिए मद मधुमास आ जाओ बसंत धरा के पास...।